बहाई लेखों में कहा गया है कि मानवजाति बाल्यावस्था को पार कर चुकी है और अब अपनी सामूहिक वयस्कता की दहलीज़ पर खड़ी है। जो भी क्रांतिकारी और व्यापक परिवर्तन आज हो रहे हैं वे इस संक्रांति-काल के लक्षण हैं - एक ऐसा काल जिसकी तुलना तरूणाई से की जा सकती है। इस अवस्था में मानव के विकास के पूर्ववर्ती चरणों की सोच, अवधारणाओं और आदतों को पीछे छोड़ दिया जाता है और विचार और कार्य के नये प्रतिमान जड़ जमाने लगते हैं, जो उसके वयस्कता तक पहुँचने का संकेत देने लगता है। अब्दुल-बहा इसकी व्याख्या करते हुये कहते हैं: “मानव-नस्ल के प्रारंम्भिक इतिहास के दौरान जो मानव आवश्यकताओं के लिये उपयुक्त था वह आज के नयेपन और उत्कर्ष के काल की ज़रूरतों के न तो अनुकूल होगा और न ही उन ज़रूरतों को पूरा कर पायेगा।” वह आगे कहते हैं, “मनुष्य को अब अवश्य ही नये गुणों और शक्तियों से, नये नैतिक मानदण्ड से, नई क्षमताओं से भरा होना चाहिये... युवा काल के उपहार और आशीष, हालाँकि मानवजाति की किशोरावस्था के लिये समयानुकूल और पर्याप्त होते हैं, फिर भी, अब वयस्कता की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये अक्षम हैं।”
समीप आते वयस्क-काल के समय की पहचान मानव-नस्ल का एकीकरण है। शोगी एफेंदी लिखते हैं कि, “परिवार, जनजाति, नगर-राज्य और राष्ट्र की एकता के लिए क्रमशः प्रयास किए गए और वह पूर्णतः स्थापित हो चुकी है,” वहीं अब विश्वव्यापी एकता “वह लक्ष्य है जिस ओर एक थकी-हारी, परेशान मानवता बढ़ने के लिये संघर्ष कर रही है।” एक अन्य स्थान पर वह चर्चा करते हैं “एक ऐसी विश्व सभ्यता के आरम्भ के विषय में जैसी सभ्यता किसी नश्वर आँखों ने अभी तक देखी नहीं और न मानव मस्तिष्क ने इसकी कल्पना की।” वह पूछते हैं, “वह कौन है जो ऐसे भव्य मानदण्ड की कल्पना कर सकता है जिसे प्राप्त करना सभ्यता के लिए निर्धारित है ? मानव-बुद्धि की उन ऊँचाइयों को माप सकता है जो बेड़ियों से मुक्ति पा कर उड़ान भरेगी? मानव-आत्मा जब बहाउल्लाह द्वारा उड़ेले जाने वाले प्रकाश की चमक से चकाचैंध होकर जिसकी खोज करेगी; उस संसार की भव्यता की कल्पना कौन कर सकता है ?”
एक विश्वव्यापी सभ्यता, जो भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि दोनों से समृद्ध होगी, का उदय होने का अर्थ है कि जीवन के आध्यात्मिक और व्यावहारिक पक्ष साथ-साथ विकास करेंगे। आस्था और विवेक के सहारे व्यक्ति में और सम्पूर्ण मानवजाति में अन्तर्निहित शक्ति और क्षमता को खोज पाना और इन सम्भावनाओं को साकार करने के लिये कार्य करना संभव होगा। विज्ञान और धर्म के बीच मौलिक समरसता को स्वीकार करने से दुनिया के सभी निवासियों के बीच आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान को लागू करना व उसका प्रसार भी सम्भव हो पायेगा।
“मानवजाति का कल्याण, इसकी शांति और सुरक्षा तब तक प्राप्त नहीं की जा सकती जब तक इसकी एकता दृढ़ रूप से स्थापित नहीं हो जाती।”
— बहाउल्लाह