प्रत्येक सृजित वस्तु में ईश्वर के गुण प्रकट हुये हैं। “प्रकृति” बहाउल्लाह लिखते हैं: “ईश्वर की ’इच्छा‘ है और इस अनिश्चित संसार में तथा इसके माध्यम से इसकी अभिव्यक्ति होती है।“ यह ईश्वर के नाम “रचयिता” का मूर्तरूप है।
सभ्यता को बनाये रखने के लिये भौतिक संसाधनों की हमेशा ज़रूरत होगी। अब्दुल-बहा ने कहा है कि मानव “लगातार प्रकृति की प्रयोगशाला से नई और अद्भुत चीजें निकालता रहेगा।” जैसे हम सीखते हैं कि सभ्यता के विकास के लिये हम धरती के कच्चे माल का उपयोग कितनी कुशलता के साथ करें उसी प्रकार हमें अपने जीवन-निर्वाह और सम्पदा के स्रोत के प्रति अपने नजरिए के लिए भी सजग रहना ज़रूरी है।
ईश्वर के गुणों की प्रतिछाया प्रकृति में देखते हुये और उसे ‘उसकी’ इच्छा की अभिव्यक्ति के रूप में समझते हुये हमारे अन्दर प्रकृति के प्रति गहन सम्मान का भाव जागता है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम प्रकृति की पूजा करें। मानवजाति के पास वह क्षमता है कि प्रकृति के संसार से वह अपने-आप को स्वतंत्र कर ले, “क्योंकि जब तक वह प्रकृति का गुलाम रहेगा खूंखार जानवर बना रहेगा, क्योंकि अस्तित्व के लिये संघर्ष प्रकृति के संसार की आवश्यकताओं में से एक है।” फिर भी, प्राकृतिक संसार दिव्य धरोहर का प्रतीक है, जिसके लिये मानव परिवार के सभी सदस्य धरती के विशाल संसाधनों के संरक्षक के रूप में- उत्तरदायी हैं।
“हमें हृदय-परिवर्तन की आवश्यकता है, अपनी सभी अवधारणाओं को पुनर्संगठित करने और अपनी गतिविधियों को एक नया आयाम देने की ज़रूरत है। अगर मानव-मुक्ति सुनिश्चित करनी है तो मानव के आन्तरिक जीवन और बाहरी वातावरण को फिर से आकार देना होगा।”
— शोगी एफेंदी की ओर से लिखे गये पत्र से