“दिव्य ज्ञान के विशुद्ध जल की एक ओस बूंद भी तुम अगर पा लेते तो तुमने तत्परता से अनुभव किया होता कि सच्चा जीवन हाड़-मांस का जीवन नहीं होता, बल्कि आत्मा का जीवन होता है...।”— बहाउल्लाह
बहाउल्लाह का प्रकटीकरण इस बात की पुष्टि करता है कि हमारे जीवन का उद्देश्य ईश्वर को जानना और ‘उसका’ सान्निध्य प्राप्त करना है। हमारी सच्ची पहचान हमारी विवेकी आत्मा है, जिसकी स्वतंत्र इच्छा और विवेक-शक्ति हमें अपने आप को तथा अपने समाज को निरन्तर बेहतर बनाने के योग्य बनाती है। ईश्वर और मानवजाति की सेवा के पथ पर चलना जीवन को अर्थ प्रदान करता है और हमें उस समय के लिये तैयार करता है जब आत्मा शरीर से अलग होती है और अपने सृष्टिकर्ता की ओर प्रयाण कर एक अनन्त यात्रा पर चल देती है।
प्रत्येक मनुष्य एक अमर, विवेकी आत्मा धारण करता है जो थोड़े समय के लिये इस संसार से होकर गुजरती है और अनन्त समय के लिये ईश्वर की ओर बढ़ने की अपनी यात्रा जारी रखती है। हमारे जीवन का उद्देश्य अपने सह-मानवों की सेवा करते हुये आध्यात्मिक रूप से प्रगति करना है। ऐसा कर हम दिव्य गुणों को प्राप्त करते हैं, जिनकी आवश्यकता हमें आने वाले जीवन में पड़ेगी।
उपासना के कार्य जैसे कि, प्रार्थना, ध्यान, उपवास, तीर्थयात्रा और दूसरों की सेवा धार्मिक जीवन के स्वाभाविक अंग हैं। इनके माध्यम से ईश्वर और मानव के बीच के अनूठे सम्बन्ध को व्यक्ति और समुदाय निरन्तर प्रगाढ़ बनाने में समर्थ होते हैं।
जिस प्रकार एक मोमबत्ती का उद्देश्य प्रकाश प्रदान करना है, मानव-आत्मा का सृजन उदारतापूर्वक देने के लिये किया गया था। हम सेवा के अपने जीवन के सर्वोच्च उद्देश्य को तब पूरा करते हैं जब पूरी विनम्रता और अनासक्ति के साथ अपना समय, अपनी शक्ति, अपना ज्ञान और आर्थिक संसाधन देते हैं।
इस संसार में आध्यात्मिक गुणों को प्राप्त करना अपने आचरण में निरन्तर परिष्कार लाने से पृथक नहीं किया जा सकता, जिसमें हमारे कार्य-व्यवहार उस शालीनता और ईमानदारी को उत्तरोत्तर प्रतिबिम्बित करते हैं जिनसे प्रत्येक मनुष्य सम्पन्न है। ऐसे आध्यात्मिक गुण अपने हित पर केन्द्रित होकर नहीं प्राप्त किये जा सकते, वे दूसरों की सेवा कर ही विकसित किये जा सकते हैं।