“मनुष्य के वृक्ष के फल सदा से उसके सुकर्म और प्रशंसनीय चरित्र रहे हैं।” -बहाउल्लाह

चरित्र और आचरण

आध्यात्मिक जीवन के केन्द्र में वैसे आध्यात्मिक गुणों को विकसित करना है जो हम में से प्रत्येक को ईश्वर की ओर जाने की अनन्त यात्रा में सहायक होता है। इस संसार में ऐसे गुणों का संवर्धन हमारे आचरण के निरन्तर परिष्कार से अविछिन्न रहा है, जिसमें हमारे कार्य हमारी श्रेष्ठता और सत्यनिष्ठा को उत्तरोत्तर प्रतिबिम्बित करते हैं , जिन गुणों से प्रत्येक मानव सम्पन्न हैं। अब्दुल-बहा कहते हैं:

“हमें अवश्य ही बिना रूके, बिना आराम किये मनुष्य के आध्यात्मिक प्रकृति को विकसित करते रहने का प्रयास करना चाहिये और अथक शक्ति के साथ मानवजाति को इसकी सच्ची तथा निर्धारित श्रेष्ठता की ओर ले जाना चाहिये।”

आध्यात्मिक गुण निरन्तर बढ़ते हुये प्रेम और ज्ञान के साँचे में और दिव्य विधान के अनुरूप विकसित होते हैं। जब हम अपने मन-मानस में ईश्वर के ज्ञान को बढ़ाते हैं तब हमारी उच्चतर प्रकृति के गुण समृद्ध होने लगते हैं। श्रेष्ठता प्राप्त करने में कौन सहायक है और कौन हमें पतन की ओर ले जाते हैं, इनके बीच के अन्तर को हम अधिक-से-अधिक स्पष्टता के साथ समझ पाते हैं, और हम इस भौतिक संसार, मानव, समाज और आत्मा के जीवन की अपनी समझ बढ़ाते हैं। ज्ञान के साथ प्रेम बढ़ता है और प्रेम के साथ सच्ची समझ बढ़ती है। हृदय और मस्तिष्क के बीच का मिथ्या द्विभाजन दूर होता है।

इस विकास के अनेक सहायक तत्व हैं। उनमें प्रार्थना, चिन्तन, सीखने की उत्सुकता और लगातार दैनिक प्रयास - विशेषकर मानवजाति की सेवा में । एक आध्यात्मिक जीवन जीने की कोशिश में, अपने ऊपर अत्यधिक ध्यान दिया जाना प्रतिकूल प्रभाव वाला होता है। बहाउल्लाह लिखते हैं कि हमें अपने विचार उस पर केन्द्रित करने चाहिये “जो मनुष्य के मन-मानस को पवित्र करता हों।” वह आगे कहते हैं कि “इसे पवित्र और शुद्ध कर्मों से, एक सदाचारी जीवन और अच्छे कर्मों के माध्यम से सर्वाधिक अच्छे रूप में प्राप्त किया जा सकता है।” अब्दुल-बहा ने लिखा है: “कितना श्रेष्ठ, कितना उत्तम वह मनुष्य है यदि वह अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिये उठ खड़ा होता है; अगर वह समाज के कल्याण के प्रति अपनी आँखें बंद कर लेता है और अपने ही हितों को साधने और केवल व्यक्तिगत लाभ के पीछे अपने बहुमूल्य जीवन को बर्बाद कर देता है तो वह कितना अधम और घृणित बन जाता है।

आध्यात्मिक गुणों को विकसित करने के अपने प्रयासों को विनम्रतापूर्वक अपने ‘स्वामी’ के साथ चलने के रूप में देख सकते हैं, धैर्य के साथ और सीखने की मुद्रा में, अपराधभाव से मुक्त, भूलों की अपरिहार्यता को स्वीकारते हुये, लेकिन कभी यह विस्मृत न करते हुये कि हमारी अंत:शक्ति क्या है। हालाँकि कठिनाइयां और बाधायें अपरिहार्य हैं, यह एक आनन्ददायक लक्ष्य है, उल्लास से भरा हुआ।

चरित्र के इस क्रमिक परिष्करण के दौरान जीवनपर्यन्त चलने वाली इस प्रक्रिया के सर्वाधिक खतरों में हैं दंभ, श्रेष्ठता-मनोग्रंथी और अहंकार - ऐसे लक्षण जो सम्पूर्ण आध्यात्मिक उद्यम को विकृत कर देते हैं और इसकी जड़ें खोद डालते हैं। बहाउल्लाह ने लिखा है:

“हे मनुष्य की संतानों! क्या तुम यह नहीं जानते कि हमने तुम सबको एक ही मिट्टी से क्यों पैदा किया ? इसलिये कि कोई प्राणी अपने को दूसरे से श्रेष्ठ न समझे। सदैव अपने हृदय को टटोलो कि तुम्हारी उत्पत्ति कैसे हुई थी ? चूंकि हमने एक ही तत्व से तुम सब की उत्पत्ति की है, तुम्हारा यह कर्तव्य है कि तुम एक आत्मा के समान रहो, समान पगों से चलो, समान मुख से भोजन करो और एक धरा पर रहो, ताकि तुम्हारे अन्तर्मन जीवन से, तुम्हारे कर्मों और यत्नों से एकता के चिन्हों और त्याग की सुगंध का साक्षात्कार हो सके। यही मेरा परामर्श है तुम्हारे लिए, ओ तेजोमयता के अनुचरों! इस परामर्श का पालन करो ताकि तुम्हें अनुपम महिमा के वृक्ष से पावनता के फल प्राप्त हो सकें।”


जिस विषय पर विचार किया जा रहा है उसके स्वरूप के कारण वेबसाइट के इस हिस्से में दूसरों की तुलना में विषयों का यह संकलन अलग है। इसमें दिव्य विधान विषय पर एक प्रलेख शामिल है, जिसके बाद बहाई धर्म के पावन लेखों से उद्धरण दिये गये हैं, जो चार भागों में विभक्त हैं: प्रेम और ज्ञान; सत्यवादिता, विश्वासपात्रता और न्याय; हृदय की शुद्धता; और विनम्रता तथा ईश्वर में विश्वास। जैसा कि अन्य विषयों के संकलन में किया गया है, तथापि सम्बन्धित प्रलेखों और उनके स्रोत भी दिये गये हैं।

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