अक्टूबर 1985 में विश्व न्याय मंदिर ने विश्व शांति विषय पर समस्त मानवजाति को सम्बोधित एक पत्र जारी किया था, जिसका शीर्षक था “विश्व शांति का पथ”। वेबसाइट के इस भाग में वह पूरा वक्तव्य प्रस्तुत किया जा रहा है। इस वक्तव्य के प्रारम्भिक अंश आप नीचे पढ़ सकते हैं। यह बहाई रेफ्ररेंस लायब्रेरी से डाउनलोड भी किया जा सकता है।
वह महान शांति जिसकी ओर सद्भावनासंपन्न लोगों ने शताब्दियों से अपने हृदय की आशा को केन्द्रित किया था, जिसकी परिकल्पना असंख्य पीढ़ियों के द्रष्टाओं और कवियों ने अभिव्यक्त की थी, और जिसका वचन युग-युग में मानवजाति के पवित्र धर्मग्रंथों ने दिया था, अब, अन्ततः, राष्ट्रों की पहुंच के भीतर दिखाई देती है। इतिहास में पहली बार प्रत्येक व्यक्ति के लिये यह संभव हो सका है कि इस समूचे पृथ्वी ग्रह को इसके विविध राष्ट्रों और जनसमूहों के साथ एकता की समग्र दृष्टि से देख सके। विश्व शांति केवल संभव ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य है। एक महान विचारक के शब्दों में इस धरती के विकास का यह अगला चरण है, “मानवजाति का सार्वभौमीकरण”।
क्या शांति की मंज़िल तक हम तभी पहुंच पायेंगे, जब मानवजाति द्वारा व्यवहार और आचरण के पुराने ढर्रे और पुराने तरीकों पर हठपूर्वक अड़े रहने के कारण हम अकल्पनीय यातनायें भोग चुके होंगे ? या फिर आपसी परामर्श के परिणामस्वरूप स्वेच्छापूर्वक हम शांति को अपनायेंगे ? यह एक ऐसा विकल्प है जो इस धरती के सभी निवासियों के सामने खुला है। इस नाजुक मोड़ पर जबकि राष्ट्रों के सामने खड़ी अनेकों असाध्य समस्यायें एक सामान्य रूप लेकर पूरे विश्व की साझी चिंता बन गई हैं, संघर्ष और अव्यवस्था के ज्वार को रोकने में असफलता, एक घोर गैरज़िम्मेदारी का काम होगा।
इस शताब्दी के लगभग प्रारम्भ में जो अनुकूल चिह्न हैं, उनमें शामिल हैं, विश्व व्यवस्था की ओर बढ़ते हुये कदमों के निरन्तर सशक्त होने के क्रम में लीग आॅफ नेशन्स और लीग आॅफ नेशन्स का उत्तराधिकारी, संयुक्त राष्ट्र संघ जो उसकी अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक आधार पर खड़ा है, की स्थापना। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से संसार के अधिकांश राष्ट्रों ने स्वतंत्रता पा ली है। यह राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया के पूरे होने का तथा एक दूसरे से संबंधित मामलों में इन नवोदित राष्ट्रों की पुराने राष्ट्रों से संलग्नता का संकेत है। अब तक जो लोग अथवा समूह अलग-थलग थे और एक दूसरे के प्रति विरोधी भाव रखते थे, वे वैज्ञानिक, शैक्षणिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय कार्यकलापों के माध्यम से एक दूसरे से सहयोग करने लगे हैं। हाल के दशकों में अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी संगठनों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। युद्धों को समाप्त करने की पुकार उठाने वाले महिलाओं और युवाओं के आंदलनों का प्रसार हो रहा है। व्यक्तिगत संपर्क और संवाद द्वारा आपसी समझ बढ़ाने के आकांक्षी साधरण जनों के निरंतर बढ़ते हुए ताने बाने का स्वतः ही विकास हो रहा है।
Tइस असाधारण रूप से सौभाग्यशाली शताब्दी में होने वाली वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति, इस धरती पर सामाजिक विकास के क्षेत्र में एक भारी उन्नति का पूर्वाभास देती है और उन साधनों की ओर इशारा करती है जिनके द्वारा मानवजाति की व्यावहारिक समस्यायें सुलझाई जा सकती हैं। वस्तुतः वे एक संयुक्त संसार के जटिल और संश्लिष्ट प्रशासन के साधन प्रस्तुत करते हैं। फिर भी मार्ग में बाधायें बनी हुई हैं। शंकायें, गलत धारणायें, पूर्वाग्रह, संदेह, और संकीर्ण निहित स्वार्थ राष्ट्रों और लोगों के आपसी संबंधों में अड़चनें बने हुए हैं।
इस उपयुक्त अवसर पर एक गहन आध्यात्मिक और नैतिक दायित्व के कारण ही हम इस सामयिक अवसर पर आपका ध्यान उन मर्मज्ञ अंतर्दृष्टियों की ओर आकर्षित करने को विवश हो रहे हैं, जो बहाई धर्म के प्रवर्त्तक बहाउल्लाह ने एक सदी से भी पहले सर्वप्रथम मानवजाति के शासनकर्ताओं तक प्रेषित किये थे, क्योंकि ‘उनके’ धर्म के न्यासधारी होने के कारण हम इसे अपना कर्तव्य समझते हैं।
बहाउल्लाह ने लिखा था “शोक का विषय है कि निराशा के झंझावात प्रत्येक दिशा से चल रहे हैं और मानवजाति को विभाजित तथा आहत करने वाले झगड़े दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। भविष्य में होने वाली उथल-पुथल और संकट के चिन्ह अभी से पहचाने जा सकते हैं, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था अत्यधिक दयनीय रूप से दोषपूर्ण है।” इस भविष्यद्रष्टा के इस निष्कर्ष का पर्याप्त प्रमाण मानवजाति के साझे अनुभव से मिल जाता है। वर्तमान व्यवस्था की कमियां इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती हैं कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के रूप में संगठित संसार के प्रभुसत्तासंपन्न राष्ट्र, युद्ध की कालीछाया को, अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के ढह जाने के संकट को, अराजकता और आतंकवाद को, और इनके तथा अन्य व्याधियों के कारण करोड़ों लोगों के भी निरंतर बढ़ते जा रहे भीषण कष्ट को अभी तक दूर नहीं हटा सके हैं। दरअसल आक्रामकता और टकराव हमारी सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्थाओं का इस हद तक मूल स्वभाव बन गये हैं कि बहुत से लोग इस दृष्टिकोण के आगे घुटने टेक चुके हैं-कि ऐसा व्यवहार मानव स्वभाव का एक स्वाभाविक अंग है और इसलिये इसे मिटाया नहीं जा सकता।
इस दृष्टिकोण के गहरे जड़ जमा लेने के कारण मानवजाति के कार्यकलापों में एक ऐसा विरोध उत्पन्न हो गया है जो उसे जड़ और गतिहीन बना रहा है। एक ओर तो सभी राष्ट्रों के लोग न केवल शांति और समन्वय के लिये अपनी स्वीकृति, बल्कि अपनी प्रबल लालसा का ढ़िढोरा पीटते हैं, और उनकी रोजमर्रा की जिन्दगी पर मंडराती भय और शंकाओं की इस यंत्रणा का अंत चाहते हैं, दूसरी ओर इस सिद्धान्त को भी बिना सोचे समझे स्वीकार कर लेते हैं कि मनुष्य इतना स्वार्थी और आक्रामक जीव है कि उसके इन दुर्गुणों को दूर नहीं किया जा सकता और इसीलिए वह एक ऐसी समाज-व्यवस्था के निर्माण के अयोग्य है जो एक साथ ही प्रगतिशील तथा शांतिमय हो, गत्यात्मक और सामंजस्यपूर्ण हो, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें व्यक्ति की सृजनात्मकता और व्यक्तिगत पहल के लिये उन्मुक्त अवसर हों, लेकिन वह सहयोग और आपसी आदान प्रदान पर भी आधारित हो।
जैसे-जैसे शांति अधिक से अधिक वांछनीय होती जाती है, यह आधारभूत विरोध जो शांति के सपने के साकार होने में बाधक है, उन धारणाओं पर पुनर्विचार की मांग करता है जिन पर मनुष्यजाति का इस ऐतिहासिक स्थिति के प्रति आज का सामान्य दृष्टिकोण आधारित है। यदि अनासक्त भाव से तथ्यों का परीक्षण किया जाये तो यह प्रमाणित हो जाता है कि ऐसा आचरण मनुष्य के सच्चे स्वरूप को प्रकट करने की बात से बहुत दूर, मानव-चेतना के एक विकृत रूप को सामने रखता है। इस विषय में संतुष्ट होने पर सभी मनुष्य ऐसी रचनात्मक सामाजिक शक्तियों को गतिमान कर सकेंगे जो मनुष्य के मूल स्वभाव के अनुकूल होने के कारण युद्ध और विरोध को बढ़ावा देने के स्थान पर सामंजस्य और सहयोग को प्रोत्साहन देंगी।
एक ऐसे मार्ग को चुनने का अर्थ मानवता के अतीत को नकारना नहीं, बल्कि उसको समझना है। बहाई धर्म वर्तमान युग में विश्व में व्याप्त अव्यवस्था और मानव क्रियाकलापों में व्याप्त संकटमय स्थिति को उस जीवन्त प्रक्रिया का एक स्वाभाविक चरण मानता है जो अंत में और अबाध्यरूप से मानवजाति को एक ऐसी एकमात्र सामाजिक व्यवस्था तक ले जाएगी जिसकी सीमायें, इस सम्पूर्ण धरती की हैं। मानवजाति एक अलग जैव इकाई के रूप में उन सभी विकास के चरणों से गुजरी है जो मनुष्यों के शैशव और बाल्यकाल के समान्तर है और अब इस विकास की परिणति इसके उथल पुथल भरी किशोरावस्था में हो रही है जो इसके-बहुप्रतीक्षित अवस्था की ओर बढ़ रहा है।
इस तथ्य को बेझिझक स्वीकार कर लेना कि पूर्वाग्रह युद्ध और शोषण उस विराट ऐतिहासिक प्रक्रिया में अपरिपक्वता के चरण थे और कि मानवजाति आज उस अनिवार्य उथल पुथल की स्थिति से गुजर रही है जो उसके सामूहिक रूप से वयस्कता तक पहुंचने का चिन्ह है, और यह निराशा का कोई कारण नहीं है बल्कि एक शांतिपूर्ण विश्व के निर्माण के महत्तर दायित्व को निभाने की पूर्व-शर्त है। ऐसा उद्यम संभव है, कि इसके लिये आवश्यक रचनात्मक शक्तियों का अस्तित्व है, कि एकीकरण करने वाले सामाजिक ढांचों का निर्माण किया जा सकता है - यही वह विषय है जिसका हम आपके द्वारा परीक्षण चाहते हैं।
जो कुछ भी कष्ट और उथल पुथल निकट भविष्य में मानवता को भोगने हैं, तात्कालिक परिस्थितियां चाहे कितनी ही अंधकारमय हों, बहाई समुदाय का विश्वास है कि मानवजाति इसके अंतिम परिणाम के प्रति पूर्णतया आश्वस्त रहते हुए, इस महान परीक्षा का सामना कर सकती है। सभ्यता के अंत की ओर इंगित करने की बात तो दूर, वे उथल-पुथल भरे परिवर्तन जिनकी ओर मानवता अधिकाधिक तीव्रगति से बढ़ने को बाध्य है, “मानव के स्तर में अन्तर्निहित संभावनाओं’’ को उनमुक्त करने में और “इस धरती पर इसकी नियति की संपूर्णता को, उसके यथार्थ की नैसर्गिकता’’ को प्रकट करने में सहायक होंगी।