अक्टूबर 1985 में विश्व न्याय मंदिर ने विश्व शांति विषय पर समस्त मानवजाति को सम्बोधित एक पत्र जारी किया था जिसका शीर्षक था “विश्व शांति का पथ”। वेबसाइट के इस भाग में वह पूरा वक्तव्य दिया जा रहा है। नीचे आप भाग 1 पढ़ सकते हैं। इसे बहाई रेफरेंस लायब्रेरी से भी डाउनलोड किया जा सकता है।
ये ईश्वरप्रदत्त गुण जो मानवजाति को अन्य सभी जीवरूपों से अलग करते हैं, उस एक शब्द में साररूप में निहित हैं जिसे मानवचेतना कहा जाता है। मस्तिष्क इसका एक सारभूत गुण है। इन्हीं नैसर्गिक गुणों ने मानवजाति को सभ्यताओं के निर्माण और भौतिक समृद्धि की योग्यता दी है। लेकिन केवल इन्हीं उपलब्धियों से मानवचेतना संतुष्ट नहीं हो सकी है, क्योंकि इसका रहस्मय स्वरूप इसे एक सर्वातीत भाव की ओर, एक अज्ञात अदृश्य लोक की ओर बढ़ने को, उस अंतिम यथार्थ की ओर, सभी सारतत्वों के उस सारतत्व की ओर जिसे ईश्वर कहा जाता है, पहुंचने की प्रवृत्ति देता है। एक के बाद एक आने वाली आध्यात्मिक प्रतिभाओं ने जो धर्म मानवजाति को प्रदान किये थे, वे मानवता और उस अंतिम यथार्थ के बीच प्राथमिक संबंध-सूत्र थे और उन्होंने मानवजाति की क्षमता को इस तरह से अनुप्राणित और संस्कारित किया है कि वह सामाजिक प्रगति के साथ-साथ आध्यात्मिक प्रगति की उपलब्धि भी प्राप्त कर सके।
मानव क्रियाकलापों को व्यवस्थित करने के, विश्वशांति को प्राप्त करने के कोई भी गंभीर प्रयास धर्म को अनदेखा नहीं कर सकते। मानवजाति का धर्म के प्रति दृष्टिकोण और उसका क्रियात्मक आचरण अधिकांश में इतिहास का विषय है। एक प्रमुख इतिहासकार ने धर्म को “मानव स्वभाव का एक गुण” कहकर वर्णन किया है कि इस गुण की विकृति होने के कारण ही समाज में तथा व्यक्तियों के बीच होने वाली अव्यवस्था और संघर्षों को जन्म मिला है, इस तथ्य से कठिनाई से ही इन्कार किया जा सकता है। लेकिन कोई भी निष्पक्ष विचारों वाला पर्यवेक्षक धर्म द्वारा सभ्यता की महत्वपूर्ण अभिव्यक्तियों पर पड़ने वाले प्रबल प्रभावों से भी इन्कार नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त, सामाजिक व्यवस्था के लिए इसकी अनिवार्यता, कानूनों और नैतिकता पर पड़ने वाले इसके सीधे प्रभाव द्वारा बारम्बार प्रदर्शित की गई हैं।
धर्म की सामाजिक शक्ति के बारे में बहाउल्लाह ने कहा है: “ इस संसार में व्यवस्था की स्थापना और उसमें जो भी रहते हैं उनकी शांतिपूर्ण संतुष्टि के लिए धर्म सभी साधनों में सबसे महान है।” धर्म के तमसावृत होने या भ्रष्ट होने के विषय में उन्होंने लिखा है - ‘‘यदि धर्म का दीपक अंधकार में छिप जाये तो अव्यवस्था व भ्रम उत्पन्न होंगे, और औचित्य की, न्याय की प्रशांतता की और शांति की ज्योति आलोकित होनी बंद हो जाऐंगी ’’ ऐसे परिणामों को गिनाते हुए बहाई पवित्र ग्रंथों में यह इंगित किया गया है कि “मानव-स्वभाव की विकृति, मानवीय आचरण का पतन, मानवीय संस्थाओं की भ्रष्टता और विघटन, ऐसी परिस्थितियों में स्वयं को अपने सबसे निकृष्ट और वीभत्सतम रूपों में प्रकट करते हैं, मानव-चरित्र का अधःपतन होता है, आत्मविश्वास विचलित हो जाता है, अनुशासन ढीला पड़ जाता है, मानव-अन्तःकरण की आवाज को कुचल दिया जाता है, शिष्टता और लज्जा की भावना तिरोहित हो जाती है। कर्तव्य, सुदृढ़ता, पारस्परिक आदान-प्रदान और निष्ठा की धारणायें विकृत हो जाती हैं और शांति, आनंद और आशा की मूल संवेदना ही धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। ’’
अतः यदि मानवता एक बिन्दु तक आ पहुंचे जब विरोध और संघर्ष ने उसे जड़ और गतिहीन कर दिया हो तो गलतफहमियों और भ्रम के उस मूलस्त्रोत को खोजने के लिए जो धर्म के नाम पर उसे आहत कर रहा है, उसे स्वयं अपनी ओर, अपनी उपेक्षा की ओर, और उन तीखी पुकारों की ओर ध्यान देना चाहिए जिन्हें वह अब तक सुन चुकी है। और जो लोग अंधेपन और स्वार्थ के साथ अपनी विशिष्ट कट्टरपंथी धारणाओं पर अड़े हुए हैं, जिन्होंने अपने अनुयायियों पर ईश्वरीय संदेशवाहकों की वाणी की परस्पर विरोधी और गलत व्याख्यायें थोपी हैं, वे भी इस भ्रम और व्यवस्था के लिये बहुत अधिक जिम्मेदार हैं - एक ऐसा भ्रम और एक ऐसी अव्यवस्था जिन्हें धर्म और तर्कविज्ञान और धर्म के बीच नकली दीवारें खड़ी करके और अधिक बढ़ा दिया गया है। क्योंकि महान धर्मसंस्थापकों की वास्तविक वाणी के एक न्यायपूर्ण परीक्षण से और उस सामाजिक परिवेश पर दृष्टि डालने से जिसके बीच उन्हें अपने ईश्वरीय उद्देश्य को निभाने के लिए बाध्य होना पड़ा था, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विभिन्न मानवीय धर्मसमुदायों और उनके कार्यकलपों को विशृंखलित कर देने वाले विवादों और पूर्वाग्रहों का कोई भी आधार नहीं है।
यह शिक्षा कि हमें दूसरों से भी वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा व्यवहार हम स्वयं अपने प्रति चाहें, ऐसा नैतिक सिद्धांत है जिसे सभी महान धर्मों में अनेक रूपों में दोहराया गया है। यह सिद्धांत हमारे इस बाद के कथन को दो विशिष्ट संदर्भों में और अधिक बल देता है: यह इन धर्मों में व्याप्त उनके नैतिक रवैये, उनके शांति को प्रोत्साहन देने वाले पक्ष का सार रूप प्रस्तुत करता है, चाहे वे धर्म किसी भी युग और किसी भी स्थान में उद्भूत हुए हों। यह एकता के उस पहलू की ओर भी प्रबल संकेत करता है जो उनकी सारभूत अच्छाई है, एक ऐसी अच्छाई जिसे अपने असंबद्ध ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने में मानवजाति असफल रही।
यदि मानवजाति ने अपने सामूहिक बाल्यकाल के शिक्षकों को उनकी वास्तविक विशिष्टता के परिप्रेक्ष्य में, एक ही सभ्यता के निर्माण की प्रक्रिया के माध्यमों के रूप में देखा होता, तो यह अवश्य ही उनके उत्तरोत्तर आने वाले ईश्वरीय प्रयोजनों के समग्र प्रभावों से इतने महान रूप से लाभान्वित होती जिसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। लेकिन शोक, कि यह ऐसा करने में असमर्थ रही।
कई देशों में धर्मांध धार्मिक उत्साह का फिर से उमड़ पड़ना, बुझने से पहले दिये की लौ के भड़कने के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जा सकता। इस धर्मान्धता की लहर के साथ हिंसा और विघटनकारी घटनाओं का आना इनके आध्यात्मिक दिवालियापन की गवाही देता है। निश्चय ही धार्मिक धर्मान्धता के इस वर्तमान उत्थान का एक सबसे विचित्र और सबसे दुखजनक पहलू यह है कि इसने, जिस धर्म में भी यह प्रकट हुआ है, उस धर्मविशेष की मानवीय एकता से संबंधित आध्यात्मिक मूल्यों को ही खोखला नहीं कर दिया है, बल्कि जिस धर्म की यह धर्मान्धता सेवा करना चाहती है उस धर्म के द्वारा प्राप्त अनूठी नैतिक विजयों को भी इसने निःशेष कर दिया है।
मानवजाति के इतिहास में धर्म चाहे जितनी ही महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरा हो और उग्रवादी धार्मिक कट्टरता का वर्तमान पुनरूत्थान कितना ही नाटकीय हो, धर्म और धार्मिक संस्थाओं को पिछले कुछ दशकों से अधिकाधिक संख्या में लोगों ने आधुनिक विश्व की प्रमुख समस्याओं के संदर्भ में अप्रासंगिक समझा है। धर्म के स्थान पर लोग या तो भौतिकवादी संतुष्टि की ओर मुडे़ हैं या उन मानवनिर्मित वादों का अनुसरण करने में लगे रहे हैं जो उन बुराइयों को दूर करने के लिए रचे गये हैं जिनके कारण ऊपरी तौर पर समाज संत्रस्त दिखाई पड़ता है। इनमें अधिकांश वादों की प्रवृत्ति मानवजाति की एकता को बढ़ावा देने और विभिन्न राष्ट्रों के बीच सहमति और मेलमिलाप की अभिवृद्धि करने के बजाय या तो राजतंत्र को ही ईश्वर की जगह बिठाने अथवा सारी मानवता को एक राष्ट्र, नस्ल या धर्म के अधीन करने अथवा सभी प्रकार के विचारविमर्श और विचारों के आदान-प्रदान के दमन का प्रयास करने तथा करोड़ों भूखे मरते लोगों को एक ऐसी बाजार व्यवस्था की दया पर छोड़ देने की ओर है जो स्पष्टतया ही बहुसंख्यक मानवता की दुर्दशा को और अधिक बढ़ा रही है जबकि कुछ थोड़े से वर्गों को समृद्धि की ऐसी स्थिति में जीवन बिताने की सामथ्र्य दे रही है जिसकी कल्पना भी हमारे पूर्वजों ने शायद ही की हो।
कितना दुःखद है इन स्थानापन्न धर्मों का लेखा-जोखा जिन्हें हमारे युग के दुनियावी बुद्धिमान लोगों ने उत्पन्न है। जिन विशाल जनसमूहों को इन लोगों द्वारा निर्मित वादों की वेदिकाओं पर आराधना करने की शिक्षा दी गई थी, आज उनका पूर्णतया भ्रमभंग हो चुका है, जिसे उनके आदर्श पर अपरिवर्तनीय ऐतिहासिक निर्णय के रूप में समझा जा सकता है। मानव व्यवहार पर जिन्होंने अपना अधिकार चाहा उनके द्वारा दशब्दियों में अपनी शक्तियों के अबाधित बढ़ते हुए प्रयोग से इन सिद्धांतों ने जो फल उत्पन्न किये हैं, वे हैं अनेक ऐसी सामाजिक और आर्थिक बुराइयां जो बीसवीं सदी के इन अंतिम वर्षों में संसार के ¬प्रत्येक क्षेत्र को संत्रस्त कर रही हैं। इन सभी ऊपरी व्याधियों के मूल में एक आध्यात्मिक क्षति है; जो प्रतिबिंबित होती है सभी राष्ट्रों के जनसमूहों पर छाई हुई निष्क्रियता की भावना में और करोड़ों उपेक्षित और पीड़ित लोगों के हृदयों की आशा की समाप्ति में।
अब वह समय आ गया है जब भौतिकवादी सिद्धांतों का उपदेश देने वाले लोगों को, चाहे वे पूर्व के हों या पश्चिम के, पूंजीवादी हों या समाजवादी, चाहिये कि उस नैतिक नेतृत्व का हिसाब पेश करें, जो अपनी धारणा के अनुसार उन्होंने अब तक संचालित किया है। कहां है वह ‘नई दुनिया’ जिसका वायदा इन वादों ने किया था ? इस या उस राष्ट्र या नस्ल के द्वारा या विशेष वर्गों के द्वारा शक्ति और समृद्धि हथियाकर उत्पन्न हुई सांस्कृतिक उपलब्धि के वे नये आयाम कहां हैं ? क्यों संसार के लोगों का विशाल बहुमत अधिकाधिक भूख और दुर्दशा के दलदल में फंसता जा रहा है ? जबकि इतनी धनसंपत्ति आज मानवजाति के भाग्य के निर्णायकों के हाथों में है, जिसकी कल्पना फैरो, सीजरों या उन्नीसवीं शताब्दी की साम्राज्यवादी शक्तियों ने भी न की होगी।
विशेषरूप से इन सभी वादों में भौतिक उपलब्धियों की जो महिमा गाई गई है, वही इन सब वादों की जननी भी है और उनकी एक सामान्य विशेषता भी। वही इस मिथ्या भावना को पोषित करती है कि मनुष्य असुधारिय रूप से स्वार्थी और आक्रामक स्वभाव का है। यहीं से उस आधारभूमि को निष्कंटक बनाना है जहाँ से हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए उपयुक्त एक नये विश्व का निर्माण शुरू हो।
अनुभव के निष्कर्ष के रूप में यह स्पष्ट हो जाता है कि भौतिकवादी आदर्श मनुष्यजाति को संतुष्टि देने में असफल रहे हैं। और इसी कारण से यह ईमानदारी से स्वीकार किया जाना चाहिए कि अब इस धरती की यातनामयी समस्याओं के हल के लिए एक नया प्रयास किया जाना आवश्यक है। आज समाज में व्याप्त असहनीय परिस्थियाँ सभी की सामान्य असफलताओं का उद्घोष करती हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जो प्रत्येक दिशा से घिरी हुई मानवता को राहत देने के बजाय उन विकट परिस्थितियों के घेरे को और भी अधिक घातक बनाती है। स्पष्ट है कि सामान्य उपचार के लिए तुरन्त प्रयास किया जाना आवश्यक है। मूलरूप से यह मामला हमारे रवैये से संबंधित है। क्या मानवता अपने पथभ्रष्ट तौर-तरीकों पर चलती रहेगी, घिसी पिटी धारणाओं और अव्यावहारिक मान्यताओं पर अड़ी रहेगी ? या इसके नेतागण अपने-अपने वादों पर ध्यान न देते हुए, दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ेंगे और उचित समाधानों की एक साझी खोज के लिए आपस में परामर्श करेंगे ?
जिन्हें मानवजाति के भविष्य की चिन्ता है वे इस सलाह पर कुछ विचार करें ‘‘यदि लम्बे समय से प्रतिष्ठित आदर्श, और समय की कसौटी पर खरी उतरने वाली संस्थायें, कुछ सामाजिक धारणायें और धार्मिक फार्मूले सामान्य मानवता का कल्याण करने में अब असमर्थ हो गये हैं, यदि वे अब निरंतर विकसित होती हुई मानवता की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते, तो उन्हें बुहार कर दकियानूसी और विस्मृत सिद्धांतों के कबाड़खाने में फेंक दिया जाना चाहिए। एक ऐसी दुनिया में जो परिवर्तन और ह्रास के अपरिवर्तनीय नियम के अधीन है, ये सिद्धांत ह्रास से मुक्त क्यों रहें और प्रत्येक मानव संस्था से आगे क्यों बढ़ जायें ? क्योंकि वैधानिक मानदंडों और राजनीतिक तथा आर्थिक सिद्धांतों की रचना, मात्र मानवजाति के हितों की समग्ररूप से रक्षा के लिए हुई है और इसलिए नहीं कि किसी विशिष्ट विधान या सिद्धांत की अखंडता को बनायें रखने के लिये सारी मानवता को सूली पर चढ़ा दिया जाये।’’