अक्टूबर 1985 में, विश्व न्याय मंदिर ने विश्व शांति विषय पर समस्त मानवजाति को सम्बोधित एक पत्र जारी किया था जिसका शीर्षक था “विश्व शांति का पथ”। वेबसाइट के इस भाग में वह पूरा वक्तव्य दिया जा रहा है। नीचे आप भाग प्प्प् पढ़ सकते हैं। इसे बहाई रेफरेंस लायब्रेरी से डाउनलोड़ भी किया जा सकता है।
जिस आधारभूत प्रश्न को सुलझाना है, वह यह है कि आज की दुनिया, जिसमें संघर्ष का मजबूत प्रतिमान बरकरार है, इस प्रकार एक ऐसी दुनिया के रूप में बदल सकती है जिसमें सामंजस्य और सहयोग की प्रबलता हो।
विश्वव्यवस्था केवल मानवजाति की एकता, की अडिग चेतना के आधार पर खड़ी की जा सकती है, यह एक ऐसा आध्यात्मिक सत्य है जिसकी पुष्टि सभी मानवीय विज्ञान करते हैं। मानवशास्त्र, शरीर विज्ञान, मनोविज्ञान स्वीकार करते हैं कि मानव की एक ही नस्ल है, हालांकि वह जीवन के गौणतर पहलुओं में अनंत विविधता रखती है। इस सत्य की स्वीकृति के लिए सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों के परित्याग की आवश्यकता है - नस्ल, वर्ग, रंग, धर्म, राष्ट्र, लिंग, भौतिक सभ्यता के स्तर से संबंधित है, उन सभी कुछ के परित्याग की आवश्यकता है जो लोगों द्वारा स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझे जाने का कारण बनते हैं।
मानवजाति की एकता की स्वीकृति इस संसार को एक देश के रूप में, समस्त मानवता के घर के रूप में पुनर्गठित करने और प्रशासित करने की पहली पूर्व-आवश्यकता है। इस आध्यात्मिक सिद्धांत की सार्वभौमिक स्वीकृति विश्व शांति स्थापित करने के किसी भी सफल प्रयास के लिये अत्यन्त अनिवार्य है। अतः इसकी सार्वभौम उद्घोषणा की जानी चाहिए, इसे स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिए और समाज के ढांचे में, उस जीवंत परिवर्तन के लिए जो इसका निहितार्थ है, प्रत्येक राष्ट्र में इस पर निरंतर बल दिया जाना चाहिए।
बहाई दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य जाति की एकता की स्वीकृति यह मांग करती है कि ‘‘संपूर्ण सभ्य संसार का पुनर्निर्माण व असैन्यीकरण हो। इससे कम कुछ नहीं - एक ऐसा संसार जो जीवन के सभी सारभूत पक्षों में, अपनी राजनीतिक प्रणाली में, अपनी आध्यात्मिक आकांक्षाओं में, अपने व्यापार और अर्थव्यवस्था में, अपनी लिपि और भाषा में जीवंत रूप से एकता के सूत्र में बंधा हुआ हो, और फिर भी इस संघ की सभी संघभूत इकाइयों की राष्ट्रीय विविधताओं की विशिष्टता अनंत हो।’’
इस मूल सिद्धांत के प्रभावों को स्पष्ट करते हुए बहाई धर्म के संरक्षक, शोगी एफेंदी, ने 1931 में विचार व्यक्त किये थे कि: ‘‘समाज के वर्तमान नींव को तोड़ने की बात तो दूर, यह (बहाई धर्म) इसके आधार को व्यापक बनाने का और इसकी संस्थाओं को इस रूप मे पुनःनिर्मित करने का इच्छुक है जो इस निरंतर बदलती हुई दुनिया की आवश्यकताओं के अनुकूल हों। इसका विरोध किसी भी प्रकार की सही उद्देश्यों वाली राज्य-निष्ठा के साथ नहीं हो सकता और न ही यह अनिवार्य वफादारी को कमतर दिखलाना चाहता है, इसका उद्देश्य न तो मानव हृदयों में जलने वाली प्रबुद्ध और समझदारी भरी देशभक्ति की दीपशिखाओं को दबाना है, न ही राष्ट्रीय स्वायत्तता की उस प्रणाली को समाप्त करना है जो अत्यधिक आवश्यक है, सीमा से अधिक केन्द्रीकरण की बुराई से बचने के लिए। यह नस्ली मूलों, जलवायु, इतिहास, भाषा और परम्परा, विचार और स्वभाव की उन विविधिताओं को भी दबाना नहीं चाहता जो संसार के लोगों और राष्ट्रों को विभिन्नता प्रदान करते हैं। इसकी पुकार है कि अब तक मानवजाति में जिन निष्ठाओं और आकांक्षाओं को अनुप्राणित किया गया है उससे कहीं अधिक व्यापक निष्ठा और विशालतर आकांक्षायें हमारी हों। इसका आग्रह है कि एकता के सूत्र में बंधे हुए संसार के अनिवार्य दावों के सम्मुख राष्ट्रीय आवेगों और हितों को गौण माना जाये। एक ओर तो यह अत्यधिक केन्द्रीकरण का खंडन करता है और दूसरी ओर एकरूपता लाने के सभी प्रयासों को अस्वीकार करता है। इसका मूल स्वर है विविधता में एकता।’’
ऐसे लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय, राजनैतिक रवैयों को कई चरणों से व्यवस्थित किया जाना आवश्यक है, जो इस समय स्पष्ट रूप से परिभाषित कानूनों या राष्ट्रों के बीच संबंधों को नियंत्रित करने वाले स्वीकृत सार्वभौम सिद्धान्तों के अभाव के कारण अराजकता की कगार पर स्थित हैं। लीग ऑफ नेशन्स, संयुक्त राष्ट्र तथा अनेक वे संगठन या समझौते जिनको इन दोनों संस्थाओं ने जन्म दिया है, अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों के कुछ नकारात्मक प्रभावों को क्षीण करने में सहायक अवश्य हुए हैं लेकिन उन्होंने स्वयं को युद्ध रोकने में असमर्थ प्रमाणित किया है। वास्तव में दूसरे विश्व युद्ध के समाप्त होने के बाद से बीसियों लड़ाइयाँ हो चुकी हैं और बहुत सी इस समय भी चल रही हैं।
इस समस्या के प्रमुख पहलू उन्नीसवीं सदी में भी सामने आ चुके थे। जब बहाउल्लाह ने पहले पहल विश्वशांति की स्थापना के अपने पहले प्रस्तावों को सामने रखा था। विश्व के शासकों को संबोधित वक्तव्यों में उन्होंने सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। शोगी एफेंदी ने उनके आशय पर टिप्पणी करते हुए लिखा है: ‘‘और किस आशय की ओर ये गुरूत्तर शब्द संकेत करते हैं, यदि उन्होंने उस अबाधित राष्ट्रीय प्रभुसत्ता की अनिवार्य कटौती की ओर संकेत नहीं किया है, जो संसार के सभी राष्ट्रों के भावी राष्ट्रसंघ के निर्माण के लिए एक अनिवार्य शर्त है ? यह जरूरी है कि विश्व की किसी रूप की एक सर्वोपरि सरकार का विकास अवश्य किया जाये, जिसके पक्ष में संसार के सभी राष्ट्र युद्ध करने, कर लगाने के कुछ अधिकारों और शस्त्रास्त्र रखने के सभी अधिकारों का स्वेच्छा से परित्याग कर चुके होंगे, सिवाय अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों में आंतरिक व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से शस्त्र रखने के अधिकारों के। ऐसे एक राज्य की परिधि में, एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय कार्यकारिणी भी सम्मिलित होगी जो उस राष्ट्रसंघ के प्रत्येक झगड़ालू सदस्य पर सर्वोपरि और चुनौती न दी जा सकने वाले अधिकार को लागू करने के लिए पर्याप्त रूप में सक्षम हो, एक विश्व संसद, जिसके सदस्य सम्बद्ध राष्ट्रों के लोगों द्वारा चुने जायेंगे और जिसके चुनाव की पुष्टि वहाँ की सरकारों द्वारा की जायेगी और इसके साथ ही एक सर्वोपरि न्यायाधिकरण भी होगा, जिसका निर्णय ऐसे मामलों में भी बाध्यकारी प्रभाव रखता होगा जिन मामलों में संबंधित पक्ष अपने मामले को विचारार्थ उसके समक्ष प्रस्तुत करने के लिए स्वेच्छापूर्वक सहमत नहीं भी हुए होंगे।
‘‘...एक ऐसा विश्व समुदाय जिसमें सारी आर्थिक दीवारें स्थायी रूप से ढहाई जा चुकी होंगी और जिसमें पूंजी और श्रम की पारस्परिक निर्भरता निश्चित रूप से स्वीकार की जा चुकी होगी: जिसमें धार्मिक धर्मान्धता और झगड़ों का शोरगुल सदा के लिये खामोश किया जा चुका होगा; जिसमें नस्ली दुश्मनी की ज्वाला को अंतिम रूप से बुझाया जा चुका होगा; जिसमें अंतर्राष्ट्रीय कानून की एक संहिता - संसार के संघरूप में संगठित प्रतिनिधियों के सुविचारित निर्णय का परिणाम - जिसमें दंड के रूप में संघीभूत इकाइयों की सम्मिलित शक्तियों के तत्काल और दमनकारी हस्तक्षेप का प्रयोग हो सकेगा; और अंत में एक ऐसा विश्व समुदाय जिसमें एक सनकी और आक्रामक राष्ट्रवाद की उग्रता को विश्व नागरिकता की एक स्थायी चेतना के रूप में परिवर्तित किया जा चुका होगा - निश्चय ही बहाउल्लाह द्वारा दी गई व्यवस्था की व्यापक रूपरेखा ऐसी ही प्रतीत होती है, एक ऐसी व्यवस्था जो धीरे-धीरे वयस्क होते हुए युग के श्रेष्ठतम फल के रूप में मानी जाएगी।
इन दूरगामी उपायों के क्रियान्वयन की ओर बहाउल्लाह ने संकेत किया था, ‘‘ वह समय अवश्य आयेगा जब व्यापक व अनिवार्य रूप से महसूस किया जायेगा कि विश्व के लोगों का एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया जाये। धरती के शासक और सम्राट इसमें अवश्य ही उपस्थित होंगे और इसकी कार्यवाहियों में हिस्सा लेते हुये उन उपायों तथा साधनों पर विचार करेंगे, जिनसे मनुष्यों के बीच विश्व की महान शांति की नींव पड़ेगी। ”
साहस, दृढ़ संकल्प, विशुद्ध उद्देश्य, एक देश के लोगों का दूसरे देश के लोगों के प्रति निःस्वार्थ प्रेम - ये सभी आध्यात्मिक और नैतिक गुण जिनकी शांति की ओर बढ़ने वाले इस युगांतरकारी कदम के लिए आवश्यकता है, मुख्य रूप से एक ही तथ्य, काम करने के दृढ़ संकल्प, की ओर इशारा करते हैं। इस आवश्यक संकल्प शक्ति को जगाने के लिए जरूरत है कि मनुष्य के मूल यथार्थ पर अर्थात् उसके ‘विचार’ पर ईमानदारी से ध्यान दिया जाये। इस बात की शक्तिशाली वास्तविकता को समझने का अर्थ है स्पष्ट, आवेग रहित और सौहार्दपूर्ण परामर्श के द्वारा इसके बेजोड़ गुण की प्रशंसा करना व इस प्रक्रिया के परिणामों पर आचरण करने की सामाजिक आवश्यकता को यथार्थ रूप देना। बहाउल्लाह ने मानव क्रियाकलापों को व्यवस्थित करने के लिये परामर्श की अनिवार्यता और गुणों पर तत्काल ध्यान दिलाया है। उन्होंने कहा, ‘‘ परामर्श और अधिक सजगता प्रदान करता है और अनुमान को निश्चय में बदल देता है। यह ऐसी जगमगाती ज्योति है जो एक अन्धकारमय संसार में राह दिखाती है और मार्गदर्शन देती है। प्रत्येक वस्तु के लिए पूर्णता और परिपक्वता का एक स्तर होता है और सदा रहेगा। बोध रूपी वरदान की परिपक्वता परामर्श के द्वारा प्रकट होती है। ’’ उन्होंने परामर्श के द्वारा जिस शांति का प्रस्ताव दिया है, वह इस संसार के लोगों के बीच एक ऐसी मंगलमय भावना को उन्मुक्त कर सकता है कि कोई भी शक्ति उसके अंतिम, विजयपूर्ण परिणाम को रोक नहीं सकती।
इस विश्व सभा के कार्यकलापों के संबंध में, बहाउल्लाह के ज्येष्ठ पुत्र और उनकी शिक्षाओं के अधिकृत व्याख्याता, अब्दुलबहा ने यह अंतर्दृष्टिसंपन्न बातें सामने रखी हैं ‘‘यह आवश्यक है कि वे शांति के उद्देश्य को सामान्य परामर्श का विषय बनायें और अपनी सामथ्र्य के अनुसार प्रत्येक साधन के द्वारा संसार के राष्ट्रों का एक संगठन स्थापित करने का प्रयास करें। यह आवश्यक है कि वे एक बाध्यकारी संधि करें और एक ऐसे समझौते की स्थापना करें जिसके प्रावधान समुचित, अनुलंघनीय और सुनिश्चित होंगे। यह आवश्यक है कि वे इसकी उद्घोषणा सम्पूर्ण विश्व में करें तथा समस्त मानवजाति की स्वीकृति प्राप्त करें। यह सर्वोपरि और उदात्त दायित्व - संसार की शांति और कल्याण का वास्तविक स्रोत - इस धरती के समस्त निवासियों के द्वारा एक पवित्र दायित्व माना जाये। इस परम महान समझौते के स्थायित्व और स्थिरता के लिये मानवता की सभी शक्तियों को संगठित किया जाये। इस सर्वव्यापी समझौते में प्रत्येक राष्ट्र की सीमाओं और सरहदों को स्पष्ट रूप से निश्चित किया जाये, एक-दूसरे के साथ सरकारों के संबंधों के आधारभूत सिद्धांतों को निश्चित किया जाए और सभी अंतर्राष्ट्रीय समझौतों और दायित्वों को सुनिश्चित रूप दिया जाए। उसी प्रकार से ¬प्रत्येक सरकार के शस़्त्रास्त्रों को कड़ाई के साथ सीमित किया जाये, क्योंकि यदि युद्ध के लिए तैयारियों और किसी राष्ट्र की सैनिक शक्तियों को बढ़ने दिया जायेगा तो उससे दूसरों का संदेह बढ़ेगा। इस पवित्र समझौते के आधारभूत सिद्धांतों को इस प्रकार से निश्चित किया जाये कि यदि कोई सरकार बाद में इसके किसी भी प्रावधान को भंग करे, तो इस संसार की सारी सरकारें उसे पूरी तरह अधीनस्थ करने के लिए उठ खड़ी हों, बल्कि मानवजाति को एक समग्र इकाई के रूप में अपने अधिकार में उपलब्ध सभी शक्ति का उपयोग करते हुए उस सरकार को नष्ट कर देना चाहिए। यदि सभी उपायों में से इस महानतम उपाय को इस विश्व के रोगी शरीर पर प्रयुक्त किया जाये तो यह निश्चय ही अपनी बुराइयों से मुक्त हो जाएगा और चिरंतन रूप से सुरक्षित और सकुशल रहेगा।”
इस प्रबल सम्मेलन के आयोजन में पहले ही बहुत विलम्ब हो चुका है।
हम अपने हृदयों की प्रखरतम भावना के साथ सभी राष्ट्रों के नेताओं से अपील करते हैं कि इस उपयुक्त क्षण का लाभ उठाते हुए, ऐसे अपरिवर्तनीय कदम उठायें, जिनसे कि यह विश्व बैठक एक वास्तविकता बन सके। इतिहास की सभी शक्तियाँ मानवजाति को इस कार्य के लिए बाध्य कर रही हैं और यह सदा-सदा के लिए उस चिर अपेक्षित वयस्कता के उदय का सूचक होगा।
क्या संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्यों के पूर्ण समर्थन के साथ इस सर्वोपरि घटना के उच्च उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उठ खड़ा नहीं होगा ?
सभी स्थानों की महिलाओं और पुरुषों, युवकों और बालकों को हमारा आह्वान है कि सभी देशों के लोगों के लिए इस आवश्यक कदम के शाश्वत महत्व को स्वीकार करें और अपनी आवाज़ स्वेच्छापूर्वक स्वीकृति में उठायें। निश्चय ही इस पीढ़ी को ही इस धरती के सामाजिक जीवन के विकास के इस नये चरण को शुभारंभ करने का अवसर प्रदान किया जाये।