अक्टूबर 1985 में विश्व न्याय मंदिर ने विश्व शांति विषय पर समस्त मानवजाति को सम्बोधित एक पत्र जारी किया था जिसका शीर्षक था “विश्व शांति का पथ”। वेबसाइट के इस भाग में वह पूरा वक्तव्य दिया जा रहा है। नीचे आप भाग 2 पढ़ सकते हैं। इसे बहाई रेफरेंस लायब्रेरी से डाउनलोड भी किया जा सकता है।
अणुअस्त्रों पर पाबंदी लगाने से, जहरीली गैसों के उपयोग को रोकने से या कीटाणु युद्ध को गैरकानूनी करार कर देने से लड़ाई के मूल कारण समाप्त नहीं होंगे। किन्तु ऐसे व्यावहारिक उपाय स्पष्ट रूप से शांति की प्रक्रिया के कितने ही महत्वपूर्ण अंग हों, अपने आप में वे इतने सतही हैं कि कोई स्थायी प्रभाव नहीं डाल सकते। लोग इतने चतुर हैं कि वे युद्ध के कोई दूसरे तरीके खोज लेंगे और एक-दूसरे के ऊपर आधिपत्य पाने की अनंत इच्छा से भोजन, कच्चे माल, वित्त शक्ति, औद्योगिक शक्ति, सिद्धांतवाद और आतंकवाद का उपयोग करेंगे। साथ ही, राष्ट्रों के बीच विशेष झगड़ों या असहमति का निपटारा करके मानवजाति के कार्यकलापों में आई वर्तमान विराट अव्यवस्था को भी दूर नहीं किया जा सकता। उसके लिए एक वास्तविक सार्वभौम ढांचे को अपनाये जाने की आवश्यकता है।
निश्चय ही राष्ट्रीय नेताओं ने इस समस्या के उस सार्वभौम स्वरूप को, जो उनके सामने दिन-प्रतिदिन अधिक प्रबल रूप से उठने वाली समस्याओं के द्वारा स्वतः स्पष्ट हो जाता है, समझने में कोई कोताही नहीं की है और इसके साथ ही अनेक चिन्तित और प्रबुद्ध लोगों द्वारा किये गये अध्ययनों और समाधानों की संख्या भी निरंतर बढ़ती जा रही है। इसके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र की अनेक एजेंसियों ने भी इस विषय में कार्य किया है, जिससे कि इन चुनौतीभरी आवश्यकताओं के विषय में किसी प्रकार की जानकारी के अभाव की संभावना न रहे। लेकिन इस दिशा में कुछ करने की इच्छा को ही जैसे काठ मार गया हो, और इसी समस्या का सावधानीपूर्वक परीक्षण और दृढ़ निश्चय के साथ उसका निराकरण होना चाहिए। जैसाकि हम पहले कह चुके हैं, इस निष्क्रियता की जड़ है इस धारणा में कि मनुष्यजाति अनिवार्यतः झगड़ालू है, और इसी कारण से एक विश्व व्यवस्था के हित में राष्ट्रीय हितों को गौण मानने के प्रति अनिच्छा उत्पन्न है और एक संयुक्त विश्व प्राधिकरण के दूरगामी परिणामों का साहसपूर्वक सामना करने के प्रति अनिच्छा उत्पन्न हुई है। इसका एक कारण इस तथ्य में भी खोजा जा सकता है कि अधिकांश में अज्ञान में डूबे हुए और उसके वशीभूत जनसमूह एक ऐसी नई व्यवस्था के प्रति अपनी कामना को प्रकट कर पाने में असमर्थ हैं, जिसमें वे शांति, सामंजस्य और खुशहाली से सारी मानवता के साथ रह सकें।
विश्व व्यवस्था की ओर बढ़ते कदम, विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से, आशाजनक संकेत देते हैं। राष्ट्रों के समूहों द्वारा ऐसे संबंधों को औपचारिक रूप देने की प्रवृत्ति जो उन्हें आपसी हितों के मामलों में सहयोग देने योग्य बनाते हैं, यह संकेत देते हैं कि अन्ततोगत्वा सभी राष्ट्र इस निष्क्रियता पर काबू पा सकते हैं। दक्षिण पूर्वी राष्ट्रों के संगठन, कैरेबियन समुदाय तथा साझाबाजार, केन्द्रीय अमरीकी साझा बाजार, पारस्परिक आर्थिक सहयोग की परिषद, योरोपीय समुदाय, अरब राष्ट्रों का संघ, अफ्रीकी एकता संगठन, अमेरिकन राष्ट्रों का संगठन, दक्षिण प्रशांत फोरम, वे सभी संयुक्त प्रयास जो ऐसे संगठनों के द्वारा किये जाते हैं एक विश्व व्यवस्था के लिए मार्ग तैयार करते हैं।
इस धरती की सबसे अधिक जड़ जमा लेने वाली समस्याओं की ओर जो लगातार अधिकाधिक ध्यान दिया जा रहा है वह भी एक दूसरा आशाजनक संकेत है। संयुक्त राष्ट्र की कुछ साफ दिखाई देने वाली कमियों के बावजूद, उस संगठन द्वारा चालीस से भी अधिक अपनाये गये घोषणा पत्रों तथा सिद्धांतों ने, उस स्थिति में भी जबकि कुछ सरकारें उनके प्रति प्रतिबद्धता के विषय में बहुत अधिक उत्साही नहीं हैं, आम लोगों में एक नई उम्र पाने जैसी भावना दी है। मानव अधिकारों की सार्वभौम उद्घोषणा, जातिवाद के अपराध को रोकने और दंडित करने पर समझौता, लिंगभेद, या धार्मिक विश्वास, नस्ल आदि पर आधारित सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने से संबंधित उसी प्रकार के उपाय, बच्चों के अधिकारों की रक्षा, यंत्रणा के शिकार सभी लोगों का बचाव, भूख और कुपोषण को मिटाना, शांति और मानव कल्याण के लिये वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास का उपयोग - ऐसे सभी उपायों को यदि साहसपूर्वक लागू किया जाये और विस्तार दिया जाये, तो ये उस दिन को और निकट ले आएंगे जब युद्ध की प्रेतछाया अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर अपने आधिपत्य को खो चुकी होगी। इन घोषणाओं और समझौतों में जिन समस्याओं की ओर संकेत किया गया है, उनके महत्व पर बल देने की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर भी ऐसी कुछ समस्यायें, विश्व शांति की स्थापना के विषय में तात्कालिक रूप से प्रासंगिक होने के कारण कुछ अतिरिक्त टिप्पणी की मांग करती हैं।
नस्लवाद, जो सभी बुराइयों में सबसे अधिक घातक और रूढ़िबद्ध है, शांति की राह में एक प्रमुख रूकावट है। इसका अब भी व्यवहार में लाया जाना मानवता के गौरव का इतना अपमानजनक उल्लंघन है कि उसको किसी भी बहाने से सहन नहीं किया जा सकता। नस्लवाद अपने शिकार लोगों की असीम आंतरिक संभावनाओं को प्रकट होने से रोकता है, इसको व्यवहार में लाने वाले को भ्रष्ट करता है और मानव की प्रगति को अवरुद्ध कर देता है। यदि इस समस्या पर काबू पाया जाना है तो मानवजाति की एकता की स्वीकृति की, जिसे समुचित वैधानिक उपायों से लागू किया जाये, सार्वभौम रूप से रक्षा होनी चाहिए।
धनी और निर्धनों के बीच बेहिसाब असमानता महान कष्टों का एक मूलस्रोत है और संसार को अस्थिरता की स्थिति में, वस्तुतः लड़ाई के कगार पर बनाये रखता है। बहुत थोड़े समाज इस स्थिति से प्रभावशाली रूप से निपट पाये हैं। इसका समाधान आध्यात्मिक, नैतिक और व्यावहारिक संयुक्त तरीकों की मांग करता है। इस समस्या पर एक नये पहलू से नजर डाले जाने की आवश्यकता है, जिसका अर्थ है ज्ञान के अत्यधिक विस्तृत क्षेत्रों के विशेषज्ञों के साथ ऐसे परामर्श जो आर्थिक बहस और वादों की पेचीदगियों से मुक्त हों और जिसमें उन लोगों की भी पूरी साझेदारी हो जो इन निर्णयों से, जिन्हें शीघ्र ही किया जाना बहुत आवश्यक है, सीधे रूप से प्रभावित होते हों। यह एक ऐसा मामला है जो न केवल अत्यधिक धनाढ्यता और अत्यधिक गरीबी को समाप्त करने की आवश्यकता से जुड़ा हुआ है, बल्कि जिसका संबंध उन आध्यात्मिक सत्यों से भी है जिन के समझ लेने पर एक नये सार्वभौमिक प्रवृत्ति का जन्म हो सकता है। एक ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ावा देना स्वयं इस समाधान का एक प्रमुख हिस्सा है।
अनियंत्रित राष्ट्रवाद, जिसे एक समझदारी भरी और औचित्यपूर्ण देशभक्ति से अलग समझा जाना चाहिए, अवश्य ही एक व्यापक निष्ठा, संपूर्ण मानवता के प्रति प्रेम का रूप ले। बहाउल्लाह का कथन है ‘‘धरती एक देश है, और मानवजाति इसके नागरिक।’’ विश्व नागरिकता की धारणा का सीधा संबंध वैज्ञानिक प्रगति और राष्ट्रों की आपसी निर्भरता के कारण पूरे संसार के एक ही पड़ोस के रूप में बदल जाने से है। सारे संसार के लोगों से प्रेम में किसी के अपने देश के प्रति प्रेम को वर्जित नहीं किया गया है। विश्व समाज का एक अंग होने के लाभ को, संपूर्ण के लाभ को बढ़ावा देकर, और सर्वाधिक किया जा सकता है। विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे अंतर्राष्ट्रीय क्रियाकलापों को जिनसे आपसी स्नेह और विभिन्न देशों के लोगों के बीच एकजुटता की भावना को पोषण मिलता हो, बेहद बढ़ावा देने की जरूरत है।
पूरे इतिहास के दौरान धार्मिक मतभेद अनगिनत युद्धों और संघर्षों के कारण बने रहे हैं, प्रगति के मार्ग में प्रमुख बाधा बन रहे हैं और सभी धर्मों के मानने वालों और किसी धर्म को भी न मानने वाले लोगों के लिए भी वह अधिकाधिक घृणित बन गये हैं। सभी धर्मों के अनुयायियों को अवश्य ही उन आधारभूत प्रश्नों का सामना करने के लिए जो यह मतभेद खड़ा करते हैं, और स्पष्ट उत्तरों तक पहुँचने के लिए सहर्ष प्रस्तुत रहना चाहिए। कैसे उनके बीच के मतभेद सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप से दूर हों ? आज के धार्मिक नेताओं के सामने जो चुनौती है उस पर, मानवीय संवेदना की भावना और सत्य की कामना से पूर्ण हृदयों के साथ, मानवजाति की दुर्दशा पर उन्हें विचार करना चाहिये और अपने आप से यह प्रश्न पूछना चाहिये कि क्या उन्हें अपने सर्वशक्तिमंत स्रष्टा के सम्मुख विनीत भाव से, पारस्परिक धर्मशास्त्रीय मतभेदों को डुबो नहीं देना चाहिए, जो उन्हें मानवीय समझ और शांति की प्रगति के लिए कार्य करने के योग्य बनायेगा।
स्त्रियों की स्वतंत्रता, स्त्रियों और पुरुषों के बीच पूर्ण समानता की उपलब्धि, शांति की सबसे महत्वपूर्ण, यद्यपि कम स्वीकृत पूर्व-आवश्यकताओं में से एक है। ऐसी समानता को अस्वीकार करना संसार की आधी आबादी के विरूद्ध अन्याय को जारी रखता है और पुरुषों के बीच ऐसी हानिकारक प्रवृत्तियों और आदतों को बढ़ावा देता है जो परिवार से आगे बढ़कर काम की जगह, राजनीतिक जीवन, और अंततः अंतर्राष्ट्रीय संबंधों तक पहुंचती हैं। ऐसा कोई भी नैतिक, व्यावहारिक अथवा जैवशास्त्रीय आधार नहीं है जिस पर अधिकारों की यह अस्वीकृति न्यायपूर्ण ठहराई जा सके। मानवीय प्रयास के सभी क्षेत्रों में जब महिलाओं की पूरी साझेदारी का स्वागत किया जाएगा, केवल तभी वह नैतिक और मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार किया जा सकेगा जिससे अंतर्राष्ट्रीय शांति का उद्भव होगा।
सब के लिये शिक्षा का लक्ष्य, जिसके लिए पहले से ही प्रत्येक धर्म और राष्ट्र के निष्ठावान लोगों का एक विशाल दल अपनी सेवायें समर्पित कर चुका है, संसार की सरकारों के सर्वाधिक समर्थन का अधिकारी है। क्योंकि अज्ञान ही अकाट्यरूप से वह प्रमुख कारण है जो लोगों के पतन और ह्रास का और पूर्वाग्रहों के लगातार बने रहने का आधार है। कोई भी राष्ट्र तब तक सफलता नहीं प्राप्त कर सकता जब तक उसके सभी नागरिकों को शिक्षा नहीं प्रदान की जाती। संसाधनों का अभाव अनेक राष्ट्रों की इस आवश्यकता को पूरा करने की क्षमता को सीमित कर देता है और उन्हें वरीयताओं का एक क्रम निश्चित करने के लिए विवश करता है। इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार जिन संस्थाओं को है, वे यदि महिलाओं और लड़कियों की शिक्षा को वरीयता देने के संबंध में विचार करें, तो बहुत अच्छा होगा, क्योंकि शिक्षित माताओं के माध्यम से ही ज्ञान के लाभों का प्रभावशाली रूप से और तेजी के साथ पूरे समाज में प्रसार किया जा सकता है। समय की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए विश्व नागरिकता की अवधारणा को प्रत्येक बालक की सामान्य शिक्षा के एक भाग के रूप में पढ़ाये जाने के संबंध में भी विचार होना चाहिए।
विभिन्न देशों के बीच मूलभूत संचार का अभाव भी विश्वशांति के प्रयासों को गंभीर हानि पहुँचाता है। एक अंतर्राष्ट्रीय सहायक भाषा को अपनाने से इन समस्याओं को सुलझाने में बड़ी हद तक सफलता मिलेगी और इस विषय पर तत्काल ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
इन सभी मामलों में दो बातों पर विशेष बल दिया जाना आवश्यक है। पहली यह कि युद्ध की समाप्ति महज संधियों और समझौतों पर हस्ताक्षर करने की ही बात नहीं है, यह एक कठिन कार्य है, जहां ऐसे मामलों को सुलझाने के लिए नये स्तर की प्रतिबद्धता की आवश्यकता है जिसे साधारणतयः शांति की प्राप्ति के साथ नहीं जोड़ा जाता। केवल राजनीतिक समझौतों के आधार पर सामूहिक सुरक्षा एक काल्पनिक स्थिति है। दूसरी बात यह है कि शांति से संबंधित समस्याओं का सामना करने की मुख्य चुनौती यह है कि संदर्भ को सिद्धांत के स्तर तक उठाना होगा, जो विशुद्ध व्यावहारिकता से बिल्कुल अलग हो। क्योंकि मूलरूप में, शांति एक आंतरिक मनःस्थिति से उपजती है जिसका आधार होती है आध्यात्मिक या नैतिक वृत्ति और प्रमुखतः इस वृत्ति को जगाने पर ही चिरस्थायी समाधानों की संभावना हो सकती है।
कुछ ऐसे आध्यात्मिक सिद्धांत हैं, जिन्हें कुछ लोग मानवीय मूल्य कहते हैं, जिनसे प्रत्येक सामाजिक समस्या के समाधान प्राप्त किये जा सकते हैं। कोई भी भली-नियत वाला समूह, साधारणतयः समस्याओं के समाधान के लिए व्यावहारिक उपाय समझ सकता है किन्तु भली-नियत व व्यावहारिक ज्ञान सामान्यतः पर्याप्त नहीं होते। आध्यात्मिक सिद्धांत का सारभूत गुण यह है कि यह न केवल एक ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है जो मानव प्रकृति के अंतर्निहित स्वभाव के साथ सामंजस्य रखता है, बल्कि यह एक ऐसी वृत्ति की प्रेरणा भी देता है, एक गत्यात्कता की, एक इच्छाशक्ति की, एक आकांक्षा की, जो व्यावहारिक उपायों की खोज और उन्हें लागू करने के रास्ते को सुगम बनाती है। सरकारों के अध्यक्ष और सत्ताधीन सभी लोग, यदि वे पहले इस समस्या के मूल में निहित सिद्धांतों को पहचान लेंगे और फिर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करेंगे, तो इन समस्याओं को सुलझाने में उनके प्रयासों को अच्छी सहायता मिलेगी।