विश्व न्याय मंदिर अपने संदेशों के माध्यम से विश्वव्यापी बहाई समुदाय को विश्व-सभ्यता के निर्माण में सहभागी बनने के लिये सहायता देने के उद्देश्य से विश्लेषण, दूरदर्शिता और निर्देश प्रदान करता है। इनमें एक पत्र प्रत्येक वर्ष 21 अप्रैल को - रिज़वान के पहले दिन - बहाई समुदाय को सम्बोधित हुआ करता है, जो रिज़वान संदेश के नाम से जाना जाता हे। समय-समय पर विश्व न्याय मंदिर सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के परिपेक्ष्य में संदेश भी विस्तृत समाज के नाम से सम्बोधित करता है।
नीचे विश्व न्याय मंदिर के संदेशों से कुछ संक्षिप्त अंश दिये गये हैं। बहाई रेफरेंस लायब्रेरी में विस्तृत संकलन पाया जा सकता है।
समस्याओं का मूल कारण फूट है, जिसने पूरे विश्व को इतने प्रचण्ड रूप से आक्रांत कर रखा है। यह जीवन के सभी क्षेत्रों के आचार-व्यवहार में व्याप्त हो जाती है। राष्ट्रों और लोगों के बीच प्रमुख संघर्षों के केन्द्र में यही होती है। इससे भी अधिक गम्भीर, विभिन्न धर्मों और धर्मों के अंदर के सम्बन्धों के बीच फूट आम कारण रही है, जो उस आध्यात्मिक और नैतिक प्रभाव को ही विकृत कर देती है, जो उनके प्रयास का प्रमुख उद्देश्य है।
(विश्व के बहाईयों को, 26 नवम्बर, 1992)
पिछले तीन काल-खंड़ों में न्याय मंदिर द्वारा दी गई योजनाओं के ढाँचे के अंदर बहाई समुदाय ने इतने परिश्रम के साथ काम करते हुये बहाई जीवन की जिस रूप-रेखा को प्रस्तुत किया है उससे व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास हुआ है तथा समाज के आध्यात्मिक पुर्नउत्थान में इसके सदस्यों की सामूहिक शक्ति लगी है। इसने अब एक क्षमता प्राप्त कर ली है कि प्रभुधर्म में रूचि रखने वाले लोगों के बीच संदेश ले जाया जा सकता है और उन्हें आस्था व्यक्त करने के लिये प्रोत्साहित कर प्रभुधर्म के आवश्यक सिद्धांतों में दृढ़ किया जा सकता है। इसके संस्थापक द्वारा प्रतिपादित परामर्श के सिद्धांत को प्रभावशाली सामूहिक निर्णय की प्रक्रिया में निरूपित करना और निर्णय पर दृढ़ रहना इसने सीख लिया है। समुदाय की युवा पीढ़ी के लिये इसने आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा के कार्यक्रम बनाये हैं और इन कार्यक्रमों को बच्चों और किशोरों तक ही सीमित नहीं रखा है, अपितु व्यापक समुदाय तक भी पहुँचाया है। प्रतिभाओं के एक विशाल वर्ग के सहारे इसने साहित्य के एक समृद्ध भण्डार का सृजन किया है, जिसमें अनेक भाषाओं में ऐसी पुस्तकें शामिल हैं जो इसकी अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के साथ-साथ जनसाधारण के हितों का भी सम्पोषण करती हैं। यह धीरे-धीरे वृहत समाज के क्रियाकलापों के साथ जुड़ने लगा है और सामाजिक-आर्थिक विकास की अनेक परियोजनाओं को चला रहा है। ख़ास तौर से, सन् 2001 में पाँचवें काल-खण्ड की शुरूआत के साथ मानव संसाधनों को बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू किये गये प्रशिक्षण कार्यक्रम के ज़रिये इसने महत्वपूर्ण प्रगति की है, जो समाज के आधारभूत लोगों तक पहुँच चुका है। इसने ऐसी प्रणाली और यंत्र खोज निकाले हैं जिससे जारी रखा जा सकने वाले विकास का एक स्वरूप स्थापित किया जा सकता है।
(विश्व के बहाईयों को, रिज़वान 2006)
हज़ार-ओ-हज़ार लोग, पूरे मानव परिवार की विविधता को अपनाते हुए, रचनात्मक शब्दों का क्रमबद्ध अध्ययन एक ऐसे वतावरण में कर रहे हैं जो गम्भीर और आध्यात्मिक उल्लास से भरा है। इसे जब वे विभिन्न गतिविधियों की प्रक्रिया में ढालने की कोशिश करते हैं, उन पर चिन्तन-मनन और परामर्श करते हैं और इन सब से जो अन्तर्दृष्टि उन्हें प्राप्त होती है उससे वे पाते हैं कि प्रभुधर्म की सेवा करने की उनकी क्षमता नई ऊँचाइयों को पा चुकी है। अपने सृष्टिकर्ता के साथ वार्तालाप की प्रत्येक हृदय की अंतरंग अभिलाषा के उत्तररूवरूप, वे अलग-अलग परिवेश में सामूहिक प्रार्थना सभाओं का आयोजन करते हैं, एक-दूसरे से प्रार्थनामय वातावरण में जुड़ते हैं, एक-दूसरे के प्रति आध्यात्मिक रूप से संवेदनशील बनते हैं और एक ऐसे जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जो अपने भक्तिपरक चरित्र के लिये अलग पहचान बनाता है। जब वे एक-दूसरे के घरों में जाते हैं और परिवारों, मित्रों तथा जान-पहचान के लोगों से मिलते हैं तब आध्यात्मिक महत्व के विषयों पर सार्थक और उद्देश्यपूर्ण बातें करते हैं, प्रभुधर्म का ज्ञान बढ़ाते हैं, बहाउल्लाह का संदेश देते हैं और एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक अभियान में शामिल होने के लिये उन्हें आमंत्रित करते हैं। दुनिया भर के बच्चों की आकांक्षा-अभिलाषा और आध्यात्मिक शिक्षा की उनकी जरूरत को जानते हुए उन्हें कक्षाओं में शामिल करने के अपने प्रयासों को बढ़ाते हैं, जो युवाओं के लिये आकर्षण का केन्द्र बनती हैं और समाज में प्रभुधर्म की जड़ें मजबूत करती हैं। वे किशोरों को अपने जीवन की नाव सही दिशा में ले चलने में सहयोग देते हैं और उन्हें इतना सशक्त बना देते हैं कि वे अपनी ताकत की धार सभ्यता के विकास की ओर मोड़ पायें। इस प्रकार, मानव संसाधनों के बहुतायत का लाभ पा कर उनमें से अधिकांश लोग अपनी आस्था ऐसे प्रयासों के माध्यम से व्यक्त करते हैं जो मानवजाति की आध्यात्मिक और भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
(विश्व के बहाईयों को रिज़वान 2008)
बच्चे वे अनमोल खज़ाने हैं जो एक समुदाय के पास हो सकते हैं क्योंकि उनमें ही भविष्य के समाज की आशा और आश्वासन है। वे भविष्य के चरित्र के बीजों का संवहन करते हैं और भविष्य के समाज को आकार उन वयस्कों द्वारा दिया जाता है जो बच्चों के लिये कुछ करते हैं अथवा करने में असफल रह जाते है। वे ऐसे विश्वास हैं जिसकी सुरक्षा की उपेक्षा कोई भी समुदाय नहीं कर सकता। बच्चों के लिये भरपूर प्यार, उनसे व्यवहार का तौर-तरीका, उनकी ओर ध्यान दिये जाने का स्तर, उनके प्रति बड़ों की भावना - ये सब उनके प्रति अपेक्षित आचार-व्यवहार के प्रमुख तत्व हैं। प्यार अनुशासन की अपेक्षा करता है, बच्चों को कठिन परिस्थितियों में रहने की आदत देता है और उनको अपनी मर्जी के अनुसार जीने से रोकता है। एक ऐसे माहौल को बनाये रखने की ज़रूरत है जिसमें बच्चे यह महसूस कर पायें कि वे समुदाय के अंग हैं और इसके उद्देश्य में उनकी भी भागीदारी है।
(विश्व के बहाईयों को, रिज़वान 2000)
अज्ञान को बढ़ावा देना दमन का सबसे हानिकारक रूप है, यह पूर्वाग्रहों की उन दीवारों को और भी मजबूत करता है जो मानवता की एकता - जो कि बहाउल्लाह के प्रकटीकरण का लक्ष्य और आधारभूत सिद्धांत है - की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करता है। ज्ञान प्राप्त करना सभी मनुष्यों का अधिकार है और ज्ञान का सृजन, उपयोग और प्रसार एक ऐसा दायित्व है जिसका एक समृद्ध विश्व सभ्यता के निर्माण के लिये सभी को अपनी-अपनी कुशलताओं और क्षमताओं के आधार पर वहन करना है। न्याय सार्वभौमिक प्रतिभागिता की मांग करता है। इस प्रकार सामाजिक कार्य चाहे किसी वस्तु अथवा सेवा को उपलब्ध कराने के लिए हों, उनका मुख्य उद्देश्य किसी भी जनसमूह में उन क्षमताओं का विकास करना होगा जिससे एक बेहतर विश्व के निर्माण में वे भागीदारी कर सकें।
(विश्व के बहाईयों को, रिज़वान 2010)
सम्पूर्ण मानव इतिहास में हर मोड़ पर इन तीनों [व्यक्ति, संस्थायें और समुदाय] के बीच पारस्परिक क्रियाऐं कठिनाइयों से भरी रही हैं, जहाँ व्यक्ति स्वतंत्रता के लिये चीत्कार करता है, संस्थाएँ अधीनता माँगती हैं, और समुदाय वरीयता का दावा करता है। प्रत्येक समाज ने किसी न किसी रूप में उन सम्बन्धों को परिभाषित किया है जो इन तीनों को आपस में बाँधते हैं, जिनसे उथल-पुथल के साथ गुंथी हुई स्थिरता की अवधियाँ उत्पन्न होती हैं। आज, अवस्थांतर के इस युग में, जब मानवजाति अपनी सामूहिक परिपक्वता को प्राप्त करने का संघर्ष कर रही है, तब इस प्रकार के सम्बन्ध-बल्कि, व्यक्ति की, सामाजिक संस्थाओं की, एवं समुदाय की अवधारणा ही - लगातार इतने सारे संकटों के आक्रमण का शिकार बन रही है कि इनकी गिनती नहीं की जा सकती। प्राधिकार का विश्वव्यापी संकट इसका पर्याप्त सबूत है। इसके दुरूपयोग इतने दुखदाई रहे हैं, और जो संदेह एवं आक्रोश यह अब उत्पन्न कर रहा है वह इतना गहरा है कि अब दुनिया अधिकाधिक रूप से अशासनीय होती जा रही है - जो कि एक ऐसी स्थिति है जो सामुदायिक बंधनों के कमज़ोर पड़ने से और भी खतरनाक बन गयी है।
बहाउल्लाह का प्रत्येक अनुयायी अच्छी तरह से जानता है कि ’उनके‘ प्रकटीकरण का उद्देश्य एक नयी सृष्टि को उत्पन्न करना है। जैसे ही “उनके अधरों से पहला आह्वान निकला, वैसे ही सम्पूर्ण सृष्टि मूलभूत रूप से परिवर्तित हो गयी, और वे सभी जो स्वर्गों में हैं और वे सभी जो धरती पर हैं गहन रूप से प्रभावित हो गये।” दिव्य योजना के तीन नायक - व्यक्ति, संस्थाएँ, और समुदाय - ’उनके‘ प्रकटीकरण के सीधे प्रभाव में आकार प्राप्त कर रहे हैं, और प्रत्येक की एक ऐसी नयी अवधारणा उभर रही है जो एक परिपक्व मानवजाति के लिये उपयुक्त है। इन्हें बांधने वाले सम्बन्ध भी गहरे परिवर्तन से गुज़र रहे हैं, तथा सभ्यता-निर्माण की ऐसी शक्तियों को अस्तित्व में ला रहे हैं जो केवल ’उसके‘ आदेश के अनुसार प्रकट हो सकती थीं।
(सलाहकारों के महाद्वीपीय मंडल को सम्बोधित, 28 दिसम्बर, 2010)
वह महान शांति जिसकी ओर सद्भावना से भरे लोगों ने शताब्दियों से अपने हृदय की आशा को केन्द्रित किया था, जिसकी कल्पना अगणित पीढ़ियों के दृष्टाओं और कवियों ने की थी और जिसका वचन युग-युग में मानवजाति के पवित्र ग्रंथों ने दिया था, अब अन्ततः राष्ट्रों की पहुँच के अन्दर दिखाई देती है। इतिहास में पहली बार प्रत्येक व्यक्ति के लिये यह सम्भव हुआ है कि विविध राष्ट्रों और जनसमूहों को अपने ऊपर धारण किये हुये इस समूचे पृथ्वी ग्रह को एकता की समग्र दृष्टि से देखा जा सके। विश्व शांति न केवल सम्भव है, अपितु अपरिहार्य है। इस धरती के विकास का यह अगला चरण है...
(विश्व शांति का पथ)
अणुअस्त्रों पर पाबन्दी लगाने से, ज़हरीली गैसों के इस्तेमाल को रोकने से या कीटाणु-युद्ध को गै़रकानूनी करार देने से युद्ध के मूल कारण समाप्त नहीं होंगे। ऐसे व्यावहारिक उपाय चाहे कितने भी महत्वपूर्ण क्यों न हों, निश्चित रूप से शांति-प्रक्रिया के ही अंग हैं, वे अपने आप में इतने सतही हैं कि कोई स्थायी प्रभाव नहीं डाल सकते... एक प्रामाणिक सार्वभौम ढाँचे को अपनाये जाने की आवश्यकता है।
(विश्व शांति का पथ)
हर बीतते दिनों के साथ ख़तरा बढ़ता जाता है कि धार्मिक पूर्वाग्रह की उठती हुई लपटें एक ऐसी विश्व व्यापी ज्वाला लहका देगी, जिसके परिणाम के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। ऐसे ख़तरे से नागरिक प्रशासन बिना किसी सहयोग के पार नहीं पा सकता। न ही हमें अपने आप को इस भ्रम में रखना चाहिये कि परस्पर सहिष्णुता की अपील मात्र उस वैर-भाव को बुझा देगी, जिसका दावा यह है कि उसे दिव्य आदेश ऐसा करने के लिये प्राप्त है। यह संकट धार्मिक नेतृत्व प्रदान करने वालों का आह्वान करता है कि वे अतीत से नाता तोड़ें ताकि समाज से नस्ल, जाति, लिंग और राष्ट्र के विनाशकारी पूर्वाग्रह समाप्त किये जा सकें और मानवजाति के कल्याण की बातें सोची जा सकें। सभ्यता के इतिहास के इस बड़े मोड़ पर ऐसी सेवा की माँग इससे अधिक स्पष्ट नहीं हो सकती। बहाउल्लाह इस बात पर बल देते हैं कि “मानवजाति का कल्याण, इसकी शांति और सुरक्षा तब तक प्राप्त नहीं की जा सकती जब तक इसकी एकता दृढ़ता के साथ स्थापित नहीं हो जाती।”
(विश्व के धार्मिक नेताओं के नाम पत्र)