बाब के संदेश के उद्घोष ने फारस में उथल-पुथल मचा दी। ईसा मसीह के आगमन के समय पवित्र भूमि में कोई दो हजार साल पहले जो घटनायें घटी थीं उनसे भी बड़ी उथल-पुथल यह थी। 1845 से 1847 तक क्रोध से भरी जाँच-पड़ताल की जैसे एक लहर पूरे देश में चलती रही और असंख्य सभाओं में लोगों ने बड़े आश्चर्य के साथ बाब के अनुयायियों के प्रमाणें को सुना। जो सिद्धांत, आदर्श और विधान उनके द्वारा दिये गये उसने समाज के पूरे ढाँचे को ही चुनौती दे डाली। बाब के संदेश से प्रेरित होकर हज़ार-ओ-हज़ार लोगों ने ‘उनकी’ शिक्षाओं को स्वीकार कर लिया और बाबी के रूप में जाने जाने लगे।
भय और ईष्र्या से भरे अधिकारियों के प्रचण्ड विरोध के बावजूद बाब के अनुयायियों के बीच जो आस्था गहराई उसकी ख़बर धर्माधिकारियों, व्यापारियों और समाज के उच्च वर्ग तक फैल गई। जिन लोगों ने बाब के धर्म को स्वीकारा उनमें से एक सर्वाधिक अप्रत्याशित व्यक्ति थे, जो एक प्रतिभाशाली धर्मतत्वज्ञ थे, जिन्होंने ’वाहिद‘ की उपाधि धारण की थी, जिसका अर्थ है ’अद्वितीय‘। शाह के एक विश्वासपात्र सलाहकार वाहिद को शाह की ओर से बाब से पूछ-ताछ के लिये भेजा गया। शाह यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि उनके देश में जो आन्दोलन फैल रहा था उसकी विश्वसनीय आँखो-देखी जानकारी उन्हें मिले। वाहिद से उनकी बातचीत की जानकारी पाने के बाद शाह ने बाब को तुरंत तेहरान तलब किया। प्रधान मंत्री ने इस भय से कि अगर शाह खुद भी बाब के प्रभाव में आ गये तो उनका पद दुर्बल पड़ जायेगा, यह आदेश दिया कि तुर्किस्तान की सीमा के करीब माहकू के किले में बाब को बंदी बना कर रखा जाये। शाह को यह तर्क दिया गया कि बाब के राजधानी में आने से अव्यवस्था फैल सकती है और जन-संकट उत्पन्न हो सकता है।
बाब के धर्म को स्वीकार करने वाले सर्वाधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति एक दौलतमन्द मंत्री के पुत्र थे। मिर्ज़ा हुसैन अली एक अत्यन्त आदरणीय और कुलीन के युवा थे, जिन्होंने पददलितों और गरीब लोगों की ओर ध्यान देने के लिये शाह के दरबार में दिये गये पद का त्याग कर दिया था। एक दिन मुल्ला हुसैन, बाब को स्वीकारने वाले पहले व्यक्ति, अपने मास्टर के निर्देश के अनुसार तेहरान इसलिये पहुँचे कि वह उस प्रसिद्ध व्यक्ति की तलाश कर पायें जो बाब के संदेश को ग्रहण करने में विशिष्ट हैं।
बाब की उस पाती की प्रतिकृति जो उन्हें सम्बोधित किया गया था “जिन्हें ईश्वर प्रकट करेगा।” (बहाउल्लाह)
मिर्ज़ा हुसैन अली ने बाब से जो पत्र प्राप्त किया था उसका तत्काल प्रत्युत्तर मिला। उसमें ‘दिव्य प्रकटीकरण’ के स्वरूप को उन्होंने स्वीकारा था। उन्होंने घोषणा की थी, “जो कोई भी कुरान में विश्वास करता है और इसके दिव्य उद्भव को स्वीकार करता है और फिर भी पल भर के लिये भी यह स्वीकारने में झिझकता है कि आत्मा को छू लेने वाले ये शब्द उसी पुनर्जीवन देने वाली शक्ति से भरे हैं, तो वह निश्चिय ही अपने न्याय में चूक गया है और न्याय के पथ से दूर भटक गया है।”
हालाँकि दोनों कभी मिले नहीं, किन्तु बाब यह जानते थे कि मिर्ज़ा हुसैन अली - जिन्हें बहाउल्लाह की उपाधि से नवाजा गया था - वही थे “जिन्हें ईश्वर प्रकट करेगा”, वह ‘दिव्य शिक्षक’ जिनके आगमन की पूर्व घोषणा बाब कर रहे थे।
जब बाब ईरान के उत्तर में कैद थे तब ‘उनका’ धर्म पूरे देश में फैलता रहा। जून 1848 में, उनके अनुयायियों का एक बड़ा दल बदश्त ग्राम में मिला। आन्दोलन के इतिहास में उनकी यह बैठक एक निर्णायक पल सिद्ध हुआ। वहाँ उन्होंने वाद-विवाद किया कि उनका आन्दोलन किस उद्देश्य से छेड़ा गया है, विरोध की उठती हुई लहर के बीच किस प्रकार लक्ष्यों को प्राप्त किया जाये और बाब को कैद से किस प्रकार मुक्त किया जाये। यह बदश्त में ही हुआ था कि उन्होंने महसूस किया कि बाब का मिशन अतीत की धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं और मान्यताओं से अचानक, सम्पूर्ण और नाटकीय रूप से नाता तोड़ने का प्रतिनिधित्व कर रहा था।
सम्मेलन में उपस्थित लोगों में कवयित्री ताहिरा भी थीं। बाब के संदेश के आशय के उनके स्पष्टीकरणों से सम्मेलन में बैठे लोग चैंक से गये, पूरे सम्मेलन में जैसे बिजली-सी दौड़ गई। ताहिरा ने घोषणा की कि बाब चिरप्रतीक्षित ईश्वर के अवतार थे और एक नये तथा स्वतंत्र धार्मिक युगचक्र के संस्थापक थे। इसका प्रदर्शन करने के लिये वह बिना बुरक़ा के सम्मेलन में आयीं, जिसका मुस्लिम परम्परा के अनुसार होना ज़रूरी था। उनका इस प्रकार सम्मेलन में आना कुछ बाबियों की आस्था की बहुत बड़ी परीक्षा का कारण बना और इस घटना के समाचार ने मुस्लिम धर्माधिकारियों के विरोध को और भी भड़का दिया।
बदश्त सम्मेलन के बाद, कोई 300 बाबियों ने उस छोटे-से शिविर में अपने को घेराबंद कर लिया, जिसे उन्होंने माज़िन्दरान स्थित एक निर्जन समाधि के चारो ओर अपनी सुरक्षा के लिये जल्दी में खड़ा किया था। पूरे प्रदेश में बड़े उत्साह के साथ एक अभियान चलाकर ‘प्रतिज्ञापित अवतार’ के आने का उद्घोष करने के कारण, स्थानीय धर्माधिकारियों द्वारा, उन्हें विधर्मी करार कर उनकी भत्र्सना की गई और अनेक गाँवों के जनसमुदाय को उन पर आक्रमण करने के लिये उकसाया गया। नये प्रधान मंत्री ने आदेश दिया कि बाबियों को कुचल दिया जाये और स्थानीय मुल्लाओं की मदद के लिये सेना की टुकडियों को भेजा गया।
शेख तबरसी की समाधि के चारों ओर घेराबंदी बाब के विरोधियों के लिये एक अप्रत्याशित अपमान की बात थी। अनेक महीनों तक एक-के-बाद एक सैनिकदस्तों को भेजा जाता रहा ताकि वे बाबियों को पराजित कर सकें। ’ईश्वर के मतवाले‘ ये अप्रशिक्षित, बिना पर्याप्त हथियार के लोग एक व्यवस्थित सैन्यदल जिसे स्थानीय लोगों की सहायता मिल रही थी, जिसे धर्माधिकारियों का आशीर्वाद प्राप्त था और जिसे प्रांत के संसाधन उपलब्ध थे, के विरूद्ध वीरतापूर्वक अपने को सुरक्षित रखने में समर्थ हुये।
आखि़रकार, भूख से कमज़ोर पड़ चुके, बाब के पहले अनुयायी मुल्ला हुसैन के साथ, बड़ी संख्या में अपने लोगों की बली चढ़ाने के बाद, बचे हुये बाबियों को, कुरान की एक प्रति के साथ शपथ लेकर आत्मसमर्पण के लिए प्रलोभन दिया गया, कि उसके बाद उन्हें छोड़ दिया जायेगा। किन्तु, जैसे ही वे क़िले से बाहर आये, उन्हें घेर लिया गया। अनेक वहीं पर मार दिये गये, अन्य पकड़ लिये गये और मरने तक उन्हें यंत्रणा दी जाती रही; जो बच गये उनमें से कुछ की संपत्ति लूट ली गई या गुलाम के रूप में बेच दिया गया।
दो अन्य स्थानों पर इसी तरह के दृश्य देखे गये। नैरीज़ और ज़नजान में, उत्तेजित भीड़ की मदद के लिये राज्य की सेना की टुकड़ियां आईं, उत्तेजित भीड़ उन्माद की स्थिति तक पहुँच चुकी थी। नैरीज़ में नेतृत्व प्रदान करने वाले जाने-माने व्यक्ति वाहिद भी स्थानीय अधिकारियों और उनके द्वारा उकसायी गई उत्तेजित भीड़ के गुस्से को शांत करने में सफल नहीं हो सके। उस छोटे से क़िले को, जहाँ घेरा डाले बाबियों ने शरण ली थी, दुश्मनों द्वारा अपने अधिकार में लेने के बाद जो जनसंहार शुरू हुआ उसमें वाहिद मारा गया। नैरीज़ में, तबरसी की तरह ही, बाबी समर्थकों के साथ कुरान की कसम खा कर एक झूठे शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर किया गया और बाबियों से आत्मसमर्पण कराया गया कि उसके बाद शांति और मित्रता कायम की जायेगी। उसके तुरंत बाद बंदियों को मौत के घाट उतार दिया गया।
प्रधान मंत्री अमीर कबीर इस विद्रोह की जड़ में प्रहार करने के लिये जैसे दृढ़संकल्प हो चुका था। बाब को तबरीज़ ले जाया गया, जहाँ प्रमुख विद्वानों को कहा गया कि वे नागरिक कानून के अधीन नहीं, बल्कि एक धार्मिक विषय के रूप में इस मामले को सुलझायें। जैसा कि प्रधान मंत्री ने अनुमान लगाया था, एक औपचारिक मृत्यु-वारंट पर, जो कि धर्म के आरोप पर आधारित था, धर्माधिकारियों ने सहज ही हस्ताक्षर करने में सहयोग दिया। 9 जुलाई 1850 को बाब को असाधारण परिस्थितियों में खुलेआम प्राणदंड दिया गया।
प्रभुधर्म के अधिकांश प्रमुख समर्थकों की हिंसक मृत्यु के तुरंत बाद बाब को प्राणदंड दिया जाना बाबियों के लिए एक विध्वंसक आघात था। इस समुदाय को जिस नेतृत्व की ज़रूरत थी उससे वे वंचित हो गये थे, न केवल घनीभूत होते उत्पीड़न को सहन करने के लिये, अपितु बाब द्वारा दिये गये एकता, आदर्श और आचार-व्यवहार की शिक्षा को कायम रखने के लिये उन्हें नेतृत्व की ज़रूरत थी।
तबरीज, उत्तरी ईरान, 1890
बाबियों ने लगातार इस बात पर बल दिया कि उनका एकमात्र उद्देश्य बाब द्वारा प्रकट की गई नई आध्यात्मिक और सामाजिक शिक्षाओं का प्रसार था। साथ ही, उनका विश्वास था कि यह उनका कर्तव्य था कि वे खुद की और अपने परिवार की सुरक्षा करें, बशर्ते वे आक्रमण का रास्ता न अपना लें। जो बाब के संदेश को समझते थे उन्हें राह दिखलाने वाले हाथ क्रूर दमन के कारण अगर खींच लिये जायें तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बाबियों के बीच जो चंचल प्रकृति के तत्व थे वे मूलभूत अनुशासन को बनाये रखने में असमर्थ सिद्ध हो जाते।
...और यही तब हुआ जब 15 अगस्त 1852 को दो बाबियों ने शाह पर पिस्तौल से वार कर दिया। गहरी चोट से बादशाह बच गये क्योंकि पिस्तौल में चिड़ियों को मारने वाली गोली भरी थी, लेकिन बादशाह को मारने की कोशिश मात्र ने उत्पीड़न का एक नया रास्ता खोल दिया और यह उत्पीड़न कुछ इतना भीषण था जैसा देश में अभी तक देखा नहीं गया था। हज़ारों स्त्री, पुरूष और बच्चे भयावह क्रूरता की परिस्थितियों में मौत के घाट उतार दिये गये। सलाह दी गई कि ’धर्म को त्यागने वालों” की सम्पत्ति ज़ब्त कर ली जाये। बाब के अनुयायियों को खोज निकालने में अनेक स्थानीय पदाधिकारी जुट गये। तेहरान में, अनेक व्यापारी-संघों, बेकरी चलाने वाले, कसाई, काष्ठकार और अन्य लोगों ने बाबियों के दलों को पकड़ लिया और उत्पीड़न के क्रूरतम तरीके अपनाने के लिये एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने लगे।
अनेक इतिहासकारों और टीकाकारों ने, जिनमें कुछ ने अपनी आँखों घटनाओं को देखा था, बाब के अनुयायियों के उत्पीड़न, बाब ने जिस वीरता की प्रेरणा दी थी, जिस सौम्यता और दीप्ति का पाठ पढ़ाया था और उनके प्रभावशाली कार्यों के संबंध में लिखा है।
उत्पीड़न की नई लहर ने उन्हें भी हिम्मत दे दी थी जो अटल और स्पष्टवादी ताहिरा का मुँह बंद कर देना चाहते थे। फिर भी, जब ताहिरा को मृत्युदंड का आदेश दिया गया तो ऐसा कहा जाता है कि ताहिरा ने जेलर से कहा था, “तुम जितनी जल्द मुझे मारना चाहते हो, मार सकते हो, लेकिन तुम महिलाओं की मुक्ति को रोक नहीं सकते।”
थोड़े समय के लिये पूरा फारस भारी सामाजिक परिवर्तन के किनारों पर तरंगित होता रहा। किन्तु अपेक्षित परिवर्तन धार्मिक और राजनीतिक नेताओं के हस्तक्षेप के कारण नहीं हो सका, क्योंकि वे बाब से भयभीत थे कि कहीं उनको दिया गया पद और सम्मान छिन न जाये।
इन नेताओं की अंतहीन क्रूरता ने बाब के अनुयायियों को तोड़ कर रख दिया था, वे थक चुके थे, सभी संसाधनों से वंचित होते चले जा रहे थे, अपने नेताओं की सलाह से वंचित हो गये थे। लेकिन उनका त्याग व्यर्थ नहीं गया। पुराने ज़माने के उन ऋषि मनीषियों से अलग, जो समय से बहुत आगे के सपने देखते और दिखला सकते हैं, कि जब “धरती स्वामी की महिमा के ज्ञान से आप्लावित हो जायेगी’’, बाब ने प्रकट होकर यह संकेत दिया था कि “ईश्वर के युग” का अंततः आरम्भ हो चुका है और महानतर प्रकटीकरण के लिये भूमि तैयार हो चुकी है, जिसको बहाउल्लाह द्वारा शुरू किया जायेगा।