उनकी कैद की घोर अंधेरी रातों में, अपने समर्पित अनुयायियों के सम्पर्क से वंचित, बाब को उनके बन्दीकर्ताओं द्वारा एक लैम्प भी देने से इन्कार कर दिया गया था। किन्तु, आज हज़ारों की संख्या में आने वाले लोग उस ज्योतिर्मय समाधि को देखने आते हैं जिसके तल में बाब का पार्थिव अवशेष भूमिस्थ हैं। प्रत्येक रात्रि, रोशनी में नहाई बाब की समाधि पवित्र भूमि के कार्मल पर्वत पर एक अकेला आकर्षण है। इस भवन के स्थान और पूर्वी तथा पश्चिमी शैली के वास्तुशिल्प के सुव्यवस्थित मिश्रण ने भूमध्यसागर के तट पर इसे जाना-माना और सब के मन को भाने वाला एक ऐतिहासिक स्थान बना दिया है।
वह 1891 का ग्रीष्मकाल था जब बहाउल्लाह कार्मल पर्वत के बंजर ढलान पर साइप्रस वृक्षों से घिरे एक वृत्ताकार स्थान पर खड़े हुये थे और ‘अपने’ पुत्र अब्दुल-बहा को उस स्थान का संकेत उन्होंने दिया था जहाँ बाब के पार्थिव अवशेष को रखने के लिये एक उचित समाधि का निर्माण किया जाना चाहिये। अब्दुल-बहा ने इस कठिन कार्य को पूरा करने की शुरूआत उस स्थान की जमीन को खरीद कर की और वहाँ एक साधारण छह कमरों वाली समाधि का निर्माण करवाया। “उस भवन का एक-एक पत्थर, उस भवन तक जाने वाले रास्ते का प्रत्येक पत्थर अपरिमित आँसुओं और भारी ख़र्चों के बाद मैंने खड़ा किया।” अब्दुल-बहा का यह कथन उपलब्ध है। उन्होंने यह अनुमान लगाया था कि कालान्तर में वहाँ ‘‘एक आकर्षक शैली में समाधि का निर्माण किया जायेगा जो अपने अनुपम सौन्दर्य से लोगों को आकर्षित करेगा। छज्जे पर्वत के तल से बनाये जायेंगे और पर्वत के शिखर तक जायेंगे। समाधि के नीचे से नौ छज्जे और समाधि के ऊपर नौ छज्जे। इन सभी छज्जों पर रंग-बिरंगे फूलों के उद्यान होंगे।”
21 मार्च 1909 को, बाब के पार्थिव अवशेष को, जिसे ‘उनकी’ शहादत के बाद लगभग साठ सालों तक छिपा कर रखा गया था, और गुप्त रूप से ईरान से पवित्र भूमि लाया गया, जहाँ अंतिम रूप से उसे समाधिस्थ किया गया। ’अब्दुल-बहा‘ के नाती शोगी एफेंदी ने लिखा है: “जब सारा काम समाप्त हो गया और शिराज के शहीद किये गये ईश्वरावतार के पार्थिव अवशेष को अंततः ईश्वर के पावन पर्वत के गर्भ में सदा के लिये चिरनिद्रा में सुरक्षित सुला दिया गया तब अब्दुल-बहा ने ‘अपनी’ पगड़ी उतारी, जूते निकाले और घड़ी एक किनारे फेंक दी और खुले ताबूत तक झुक गये। तब उनके सफेद बाल उनके सर पर लहरा रहे थे और उनका चेहरा दीप्त था, उन्होंने अपना सर लकड़ी के ताबूत पर रखा और तेजी से सिसकते हुये इतना रोये कि वहाँ जो भी खड़े थे, सभी रो पड़े। उस रात ‘वह’ सो नहीं सके, भावनाओं के अतिरेक में ‘वह’ कुछ इस कदर बह गये थे।"
अब्दुल-बहा के स्वर्गारोहण के शीघ्र बाद शोगी एफेंदी ने स्वयं तीन अतिरिक्त कमरों के निर्माण की देख-रेख की जिसने नौ कमरों वाला चैकोर भवन का रूप ले लिया। 1940 के प्रारम्भिक काल में, विख्यात कनाडा निवासी वास्तुशिल्पी विलियम सदरलैण्ड मैक्सवेल ने समाधि की अधिरचना की रूपरेखा दी। दूसरे विश्व युद्ध के प्रभाव के बावजूद और उस पूरे क्षेत्र में मची हलचल के होते हुये भी, अक्टूबर 1953 में, निर्माण कार्य पूरा हुआ, जिसने शोगी एफेंदी को इसे ‘‘ ’कार्मल की रानी‘ की संज्ञा देने के लिये प्रोत्साहित किया, जो ईश्वर के पर्वत पर आसीन महिमाशाली स्वर्णिम ताज पहने, झिलमिलाते धवल वस्त्र धारण किये हरितमणि का कमरबंध बांधे, आसमान, सागर, धरती और पर्वत से लोगों को मोह रही है।’’
बाब की समाधि, उसके बगीचों के भव्य छज्जों सहित |
विश्व न्याय मंदिर द्वारा सन् 1987 में लिये गये निर्णय ने कि अब्दुल-बहा द्वारा परिकल्पित छज्जों के निर्माण-कार्य को पूरा किया जायेगा, पूरी दुनिया के बहाईयों में एक नया जोश भर दिया। धरती के हर कोने से आर्थिक दान का प्रवाह बन गया। चाहे राशि कम हो या अधिक, स्वेच्छा से बहाई समुदाय के सदस्यों ने समर्पण और उदारता के भाव के साथ दान दिया और समाधि के सौन्दर्य को निखारने के लिये हर सम्भव कोशिश की। उन्नीस छज्जों के विकास का काम 1990 में शुरू हुआ और 11 साल बाद छज्जों का उद्घाटन हुआ।
इन छज्जों के खुल जाने के बाद के वर्षों में करोड़ों लोग यहाँ आ चुके हैं। सन् 2008 में बाब की समाधि और अक्का में अवस्थित बहाउल्लाह की समाधि को “असाधारण वैश्विक सम्पत्ति” के लिये युनेस्को वल्र्ड हेरिटेज की लिस्ट में शामिल किया गया।
“उद्यानों और छज्जों का सौन्दर्य और वैभव”, विश्व न्याय मंदिर ने लिखा है, “उस परिवर्तन का प्रतीक है जो निश्चित रूप से दुनिया के लोगों के दिलों, और दुनिया के बाहरी वातावरण को बदल कर रख देने के लिये नियत है।"
यह इस परिवर्तन की कल्पना ही थी जिसके लिए बाब तथा हज़ारों अनुयायियों ने अपने प्राणों की आहुति दे डाली।