बहाउल्लाह के भौतिक अवशेष की चिरविश्राम स्थली बहजी में है, जो बहाईयों के लिए धरती पर सर्वाधिक पवित्र स्थान है।

बहाउल्लाह – दिव्य शिक्षक

प्रारम्भिक बहाई समुदाय

बाब को प्राण्दण्ड दिये जाने के तुरंत बाद वाले दशक में बहाउल्लाह ने बगदाद में बाब के अनुयायियों के समुदाय के प्रभावशाली नेतृत्व का भार ग्रहण किया और इसके काम-काज को पुनर्गठित किया तथा इसके सदस्यों में एक नई जान डाली। इसके अतिरिक्त, धार्मिक नेताओं सहित बगदाद के लोगों के साथ सम्वाद किया।

अपने साथियों के समक्ष बगदाद से जाने के समय अपने उद्देश्य की घोषणा के बाद भी जब तब बहाउल्लाह एड्रियनोपल में नहीं आये, तब तक उन्होंने खुलकर यह घोषणा नहीं कि वह आज के युग के लिए ईश्वर के संदेशवाहक हैं, जिनका वचन बाब ने दिया था। उन्होंने ईरान में बाब के बचे हुये अनुयायियों के लिये यह शुभ संदेश अपने दूतों के माध्यम से भी भेजा। कुछ बाबियों ने बहाउल्लाह को स्वीकारा और वे बहाई कहलाये।

जिन दूतों को ‘उन्होंने’ भेजा उनमें से एक निष्ठावान अनुयायी थे, यज़्द के अहमद। 1865 में, बहाउल्लाह ने एक प्रभावशाली पत्र अथवा पाती अहमद को लिखी थी, जिसमें ‘उन्होंने’ ‘स्वयं’ को ’बैकुण्ठ-कोकिला’ और ’इस देदीप्यमान सौन्दर्य’ की संज्ञा दी थी, जिसकी भविष्यवाणी अतीत की पावन पुस्तकों में की गई थी। आज इस पाती का पाठ अक्सर कठिनाइयों के पल में किया जाता है और पूरी दुनिया में बहाईयों के लिये राहत देने वाला हैै।

ईरान में बहाईयों पर अत्याचार

ईरान में जब नवोदित बहाई समुदाय उभर ही रहा था तब ही इसे भीषण अत्याचार और दमन का सामना बारम्बार करना पड़ा। इस दौरान एक प्रमुख बहाई जो मारा गया उसका नाम था बदी। 1869 में, लगभग 17 साल की उम्र में वह ईरान के पहले बहाईयों में से था जो कारानगरी अक्का पहुँचा था और बहाउल्लाह से मिल पाया था। बहाउल्लाह ने बदी को ईरान के शाह को देने के लिये एक पत्र दिया और कहा कि इसे शाह को देने वह अकेला वापस जाये। जब शाह शिकार पर थे तब बड़ी बहादुरी के साथ उसने शाह को वह पत्र सौंपा। बदी को उत्पीड़ित किया गया और बड़ी बेरहमी से मार दिया गया।

अक्का का वह बंदीगृह जहाँ बहाउल्लाह कैद कर रखे गये थे।

सन 1879 में इस्फहान नगर में, दो भाई- जो काफी सम्मानित और भरोसे के स्थानीय व्यापारी थे- कैद कर लिये गये और शुक्रवार की नमाज के नेता के उकसाने पर कत्ल कर दिये गये। दरअसल, शुक्रवार की नमाज के नेता को एक बड़ी रकम इन व्यापारी बंधुओं को लौटानी थी और वह किसी प्रकार रकम चुकता करना नहीं चाहता था। बहाउल्लाह ने ‘अपने’ अनेक ‘लेखों’ में इन दो भाइयों की क्षति पर शोक व्यक्त किया है और उन्हें “शहीदों का सम्राट तथा परम प्रिय” कहकर सम्बोधित किया है तथा उन्हें “युगल प्रकाशित प्रदीप” कहा है।

अक्का में बहाउल्लाह की कैद में थोड़ी ढ़िलाई दी जाने लगी तब ईरान से पवित्र भूमि आने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या भी बढ़ी। जब वे अपने घर वापस गये, तब उनकी गतिविधियों की लहर ने ईरान के अधिकारियों के विरोध को और भी बढ़ा दिया। तेहरान बहाई समुदाय के अनेक प्रमुख सदस्य कैद कर लिये गये और 1882 तथा 1883 में मौत के घाट उतार दिये गये। अक्सर बहाई कैद किये जाते और दूसरे प्रमुख शहरों में बंदी बना कर भेज दिये जाते।

बहाई धर्म का प्रारम्भिक प्रसार

उनके जीवन के अंतिम वर्षों में बहाउल्लाह ने अपने कुछ अनुयायियों को निर्देश और प्रोत्साहन दिया कि वे अपना निवास दूसरे देशों में ले जायें जैसे मिस्त्र, कौकेशिया, तुर्कमिनिस्तान और भारत और इस प्रकार नये धर्म को विस्तार दें। बाबी आन्दोलन में दिलचस्पी जबकि मुख्य रूप से केवल शिया मुस्लिमों की थी, बहाउल्लाह के कार्यकाल के बाद के समय में यहूदी, जरस्तुस्थ और ईसाई भी उनके अनुयायी बने।

बहाउल्लाह के कैदखाने की खिड़की से देखा जा सकने वाला समुद्र

नबील-ए-आजम, बाबी-काल के प्रसिद्ध ऐतिहासिक वृतांत के लेखक ने मिस्र, ईराक़ और ईरान की यात्रा, बहाउल्लाह के अवतरण का संदेश देने के उद्देश्य से की। कैरों में नबील को कैद कर लिया गया। वहाँ उनकी मित्रता एक ईसाई बन्दी, फारिस एफेंदी से हुई, जो सम्भवतः ईसाई पृष्ठभूमि के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बहाउल्लाह के दावे को स्वीकारा।

सन् 1875 में, बहाउल्लाह ने अपने धर्म के एक अन्य कुशल शिक्षक, जमाल एफेंदी को भारत भेजा। वहाँ उन्होंने बम्बई, कलकत्ता और मद्रास में बहाई समुदायों की स्थापना में सहयोग दिया। जिन्हें उन्होंने संदेश दिये उनमें सैय्यद मुस्तफा रूमी थे, जिन्होंने बाद में बर्मा में बहाई समुदाय की स्थापना की। बाद के वर्षों में, जमाल एफेंदी स्वयं बर्मा, जावा, सियाम, सिंगापुर, कश्मीर, तिब्बत, उत्तर-पश्चिमी चीन और अफ़गानिस्तान प्रभुधर्म का संदेश देने गये।

बहाउल्लाह का धर्म उनके जीवन के अंतिम वर्षों में पश्चिम में भी फैलने लगा। मार्च 1889 में, सुप्रसिद्ध प्राच्यवेत्ता, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एडवर्ड जी. ब्राउन ने न्यूकैशल, इंग्लैंड में नये धर्म के उद्भव पर एक भाषण दिया, जिसके बाद इसी आशय के लेख रॉयल एशियाटिक सोसायटी, लंदन में आये।

1892 में, बहाउल्लाह के स्वर्गारोहण के समय तक उनका धर्म कोई 15 देशों में फैल चुका था।

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